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Thursday, December 27, 2018

कृषि प्रधान यह देश किन्तु.....

"कृषक पर एक गीत"

कृषक रूप में हर प्राणी को, धरती का भगवान मिला।
कृषि-प्रधान यह देश किन्तु क्या,कृषकों को सम्मान मिला ?

(1)
सुख सुविधा का मोह त्याग कर, खेतों में ही जीता है।
विडम्बना लेकिन यह देखो, उसका ही घर रीता है।
कर्म भूमि में उसके हिस्से, मौसम का व्यवधान मिला।
कृषि-प्रधान यह देश किन्तु क्या,कृषकों को सम्मान मिला ?

(2)
चाँवल गेहूँ तिलहन दलहन, साग-सब्जियाँ फल देता।
अन्न खिलाता दूध पिलाता, बदले में वह क्या लेता?
भ्रष्ट व्यवस्था में चलते क्या, कभी उचित अनुदान मिला।
कृषि-प्रधान यह देश किन्तु क्या,कृषकों को सम्मान मिला ?

(3)
उद्योगों ने खेत निगल कर, शक्तिहीन कर डाला है।
भूमि माफिया को सत्ता ने, बड़े जतन से पाला है।
देख दुर्दशा भूमि पुत्र की, रोता हिन्दुस्तान मिला।
कृषि-प्रधान यह देश किन्तु क्या,कृषकों को सम्मान मिला ?

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Friday, November 9, 2018

आलेख -

*अच्छे दिन आ गए* !!!!!

पहले डाकिए की आहट भी किसी प्रेमी या प्रेयसी की आहट से कम नहीं होती थी। लंबी प्रतीक्षा के बाद महकते हुए रंगबिरंगे लिफाफों में शुभकामनाओं को पाकर जो खुशी मिलती थी वह संबंधित त्यौहार या अवसर की खुशी से कमतर नहीं होती थी। लिफाफे के रूप में प्रेषक बिल्कुल सामने खड़ा होता था। हर अक्षर, हर शब्द सम्पूर्ण काया को पुलकित कर देता था। ये शुभकामना संदेश न जाने कितने बरसों से कितने ही लोगों की आलमारी में आज भी किसी खजाने की तरह सुरक्षित रखे हुए होंगे।

तत्कालीन आर्थिक क्षमता के अनुसार शुभकामना पत्र खरीदे जाते थे। प्रगाढ़ता के अनुरूप ही विशेष और साधारण बधाई कार्ड्स खरीदे जाते थे। साथ ही एक छोटा सा पुछल्ला पत्र, किसी सुंदर से लैटर पैड पर रंगीन स्याही से लिखा हुआ भी बधाई कार्ड्स के साथ लिफाफे में बोनस के रूप में जुड़ा रहता था। ये बधाई कार्ड और पत्र, कागज के महज टुकड़े नहीं होते थे बल्कि ये धड़कता हुआ दिल हुआ करते थे। लिखे हुए शब्द स्वयं बोल उठते थे।

आज भी बधाइयाँ का यह सिलसिला बन्द नहीं हुआ है। केवल तरीका बदल गया है। न पत्र, न कार्ड्स....किन्तु बधाइयों के आदान प्रदान का ताँता लगा हुआ है। स्माइली, स्टिकर्स, नेट के बधाई चित्र.....एप के प्रयोग से बनाए गए चित्र.....कॉपी पेस्ट होकर ग्लोबलाइजेशन को सजीव कर रहे हैं। प्रेषक कभी दिल से  सोचे - इन संदेशों में कितनी भावनाएँ हैं और कितनी औपचारिकताएँ ? इन बधाई संदेशों का जीवन काल कितना है ? अपने दिल से पूछें, सही जवाब दिल ही देगा। इन ऑनलाइन संदेशों को डिलीट करने में पीड़ा हो रही है या यह परेशानी का सबब बन रहे हैं ? इसका भी सही उत्तर, दिल ही देगा। दिल कभी झूठ नहीं कहता।

खैर ! हम तो आधुनिक युग में जी रहे हैं। हम प्रतिदिन विकास कर रहे हैं। कितने गर्व की बात है कि सैकड़ों हमारे चाहने वाले हैं। बधाई संदेशों की संख्या हमें महान बना रही है। पहले की टाइम टेकिंग प्रोसेस से निजात तो मिली। कार्ड और लिफाफों का खर्च बच गया। भागदौड़ की जिंदगी में समय भी बच गया। हम संस्कारवान बन गए। अच्छे दिन आ गए।

*अरुण कुमार निगम*

Friday, November 2, 2018

अल्पना दिखती नहीं

हिन्दी गजल -

आपसी दुर्भावना है, एकता दिखती नहीं
रूप तो सुन्दर सजे हैं, आत्मा दिखती नहीं।।

घोषणाओं का पुलिंदा, फिर हमें दिखला रहे
हम गरीबों की उन्हें तो, याचना दिखती नहीं।।

हर तरफ भ्रमजाल फैला, है भ्रमित हर आदमी
सिद्ध पुरुषों ने बताई, वह दिशा दिखती नहीं।।

संस्कारों की जमीं पर, उग गई निर्लज्जता
त्याग वाली भावना,करुणा, क्षमा दिखती नहीं।।

कोख में मारी गई हैं, बेटियाँ जब से "अरुण"
द्वार पर पहले सरीखी, अल्पना दिखती नहीं।।

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Monday, October 8, 2018

कौवा नजर आता नहीं..

कौवा नजर आता नहीं........

घर की चौखट पर कोई बूढ़ा नजर आता नहीं
आश्रमों में भीड़ है बेटा नजर आता नहीं।

बैंक के खाते बताते आदमी की हैसियत
प्यार का दिल में यहाँ जज़्बा नजर आता नहीं।

दफ़्न आँगन पत्थरों में, खेत पर बंगले खड़े
अब दरख्तों का यहाँ साया नजर आता नहीं।

पूर्वजों के पर्व पर हैं दावतें ही दावतें
पंगतों की भीड़ में अपना नजर आता नहीं।

बाट किसकी जोहता है धर उडद के तू बड़े
शह्र में तेरे "अरुण" कौवा नजर आता नहीं।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Tuesday, September 18, 2018

*जलहरण घनाक्षरी*

*जलहरण घनाक्षरी*
(विधान - परस्पर तुकांतता लिए चार पद/ 8, 8, 8, 8 या 16, 16 वर्णों पर यति/ अंत में दो लघु अनिवार्य)

धूल धूसरित तन, केश राशि श्याम घन
बाल क्रीड़ा में मगन, अलमस्त हैं किसन।
छनन छनन छन, पग बजती पैजन
लिपट रही किरण, चूम रही है पवन।
काज तज देवगण, देख रहे जन-जन
पुलकित तन-मन, निर्निमेष से नयन।
काग एक उसी क्षण, देख के रोटी माखन
आया छीन भाग गया, उत्तर दिशा गगन।।

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग
छत्तीसगढ़

Saturday, September 15, 2018

*हिन्दी फिल्मों के गायक कलाकार*

*हिन्दी फिल्मों के गायक कलाकार*

गायक कलाकार फिल्मों के, रहते हैं पर्दे से दूर
किन्तु नायिका नायक को वे, कर देते काफी मशहूर।।

सहगल पंकज मलिक जोहरा, राजकुमारी और खुर्शीद
तीस और चालीस दशक की जनता इसकी हुई मुरीद।।

रफी मुकेश किशोर सचिन दा, मन्नाडे हेमंत सुबीर
कभी शरारत कभी निवेदन, कभी सुरों में बाँधी पीर।।

गीतादत्त सुरैया मीना, आशा लता सुधा शमशाद
सबकी अपनी अपनी शैली, सबके सुर का अपना स्वाद।।

कवि प्रदीप बातिश राजागुल, इक्का दुक्का राज कपूर
उमा कमल बारोट चुलबुली, सुन चढ़ता था मस्त सुरूर।।

हेमलता यशुदास रवीन्दर, कंचन पंचम दा शैलेन्द्र
मनहर ऊषा कविता अलका, लंबी तानें लिए महेंद्र।।

बरसों से हम सुनते आए, किया इन्होंने दिल पर राज
दिल से गाते थे ये सारे, दिल को छूती थी आवाज।।

अब के गायक गीत सुना कर, हिट हो जाते रातों रात
उतनी ही जल्दी खो जाते, जैसे गर्मी में बरसात

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Friday, September 14, 2018

"हिन्दी भाषा भारत के लिए परम हितकारी है"


"हिन्दी भाषा भारत के लिए परम हितकारी है"
(जनकवि कोदूराम "दलित" जी की ताटंक छन्द आधारित हिन्दी कविता)

सरल सुबोध सरस अति सुंदर, लगती प्यारी-प्यारी है
देवनागरी लिपि जिसकी सारी लिपियों से न्यारी है
ऋषि-प्रणीत संस्कृत भाषा जिस भाषा की महतारी है
वह हिन्दी भाषा भारत के लिए परम हितकारी है।

सहती आई जो सदियों से संकट भारी भारी है
किन्तु रही जीवित अब तक उस भाषा की बलिहारी है
तुलसी सूर रहीम आदि ने की जिसकी रखवाली है
वह हिन्दी भाषा भारत के लिए परम हितकारी है।

कर न सकी जिसकी समता अरबी उर्दू हिंदुस्तानी
बनी सर्व-सम्मति से जो सारी भाषाओं की रानी
मंद पड़ गई जिसके आगे अँगरेजी बेचारी है
वह हिन्दी भाषा भारत मे लिए परम हितकारी है।

"जय हिन्दी-जय देव नागरी" - कहती दुनिया सारी है
आज हिन्द का बच्चा-बच्चा जिसका बना पुजारी है
भरी अनूठे रत्नों से जिसकी साहित्य-पिटारी है
वह हिन्दी भाषा भारत मे लिए परम हितकारी है।

रचनाकार - जनकवि कोदूराम "दलित"


Wednesday, August 29, 2018

कुण्डलिया छन्द - हॉकी

हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन, विश्व खेल दिवस पर.....शत-शत नमन

हॉकी

हाकी कल पहचान थी, आज हुई गुमनाम
खेल स्वदेशी खो गये , सिर चढ़ बैठा दाम
सिर चढ़  बैठा  दाम , शुरू  अब सट्टेबाजी
लाखों लाख कमायँ,नहीं भरता उनका जी
कलुषित है माहौल , कहाँ  सच्चाई बाकी
करें पुन: शुरुवात, उठा हम अपनी हाकी ||

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Wednesday, August 22, 2018

"रेडियो श्रोता दिवस - 20 अगस्त

"रेडियो श्रोता दिवस - 20 अगस्त, छत्तीसगढ़ के श्रोताओं द्वारा घोषित दिवस"   - संस्मरण

आज रेडियो श्रोता दिवस पर मैं सत्तर के दशक के अपने अनुभव साझा कर रहा हूँ, मुझे विश्वास है कि उस दौर के श्रोता मित्र लगभग पचास वर्ष पुरानी स्मृतियों में जरूर खो जाएंगे। बाद के दशकों के श्रोताओं के लिए भी यह आलेख रुचिकर हो सकता है।

ऐसा माना जाता है कि भारतवर्ष में 20 अगस्त 1921 को स्वतंत्रता आंदोलन के समय कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और लाहौर के शौकिया रेडियो ऑपरेटर्स ने अवैधानिक रूप से रेडियो प्रसारण किया था। मुम्बई में 23 जुलाई 1927 को रेडियो का विधिवत प्रसारण हुआ था। छत्तीसगढ़ के रेडियो प्रेमी श्रोताओं ने वर्ष 2008 से 20 अगस्त को रेडियो श्रोता दिवस के रूप में मनाना सुनिश्चित किया और निरंतर इस दिवस को मना रहे हैं। छत्तीसगढ़ का अनुसरण करते हुए देश के कई शहरों में भी यह दिवस मनाया जाने लगा है।
(यह जानकारी आदरणीय अशोक बजाज जी के एक आलेख से प्राप्त हुई, मैं उनका आभार प्रकट करता हूँ।)

अब अपने निजी संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। सत्तर में दशक के प्रारंभ में मेरे पास मरफ़ी मिनी मास्टर ट्रांजिस्टर था। इसके पूर्व पड़ौसियों के घर में वाल्व वाले रेडियो सेट पर ही कुछ सुनने का सौभाग्य मिल पाता था। अपने मरफ़ी मिनी मास्टर पर मैं रेडियो सिलोन, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस, आकाशवाणी रायपुर और आकाशवाणी भोपाल के प्रसारित कार्यक्रम सुना करता था। रेडियो सिलोन के कार्यक्रम इतने रोचक होते थे कि मैं नियमित और सक्रिय श्रोता बन गया। बाद में रेडियो सिलोन का नाम श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन का विदेश विभाग हो गया।

उस दौर के श्रोताओं के नाम जो मुझे याद हैं -
दुर्ग से अरुण कुमार निगम, जसवन्त सिंह साव, जवाहर सिंह साव, जगदीश बम्बारडे, राजेश वर्मा, ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव, अम्बिका गीता दुबे आदि
भिलाई से राकेश मोहन विरमानी, छगन लाल लोन्हारे, कामता प्रसाद पटेल, प्रदीप भट्टाचार्य, एच कुमार साहनी आदि
राजनांदगाँव से प्रेमचंद जैन, जब्बार कुरैशी आदि
बालोद से वीरेंद्र कुमार मोजेस, छोटेलाल यादव, अरमान अश्क आदि
बेमेतरा से ईश्वरी साहू, मगरलोड से पुनुराम साहू
रायपुर से श्रीचंद अकेला, बिलासपुर से मो.रफीक कुरैशी, पत्थलगांव से हरजिंदर एस रंगीला, कानपुर से जगदीश निगम, भाटापारा से बचकामल, उदयपुर से ललित चौरडिया आदि।

उस दौर के आकाशवाणी रायपुर के उद्घोषक -लाल रामकुमार सिंह, कल्पना यदु आदि।

उस दौर के रेडियो सिलोन के उद्घोषक -विजय लक्ष्मी डिजेरम, मनोहर महाजन, दलवीर सिंह परमार, शीला तिवारी कुछ सिंहली उद्घोषक इंदिरा हीरानंद, विजय आदि।

रेडियो सिलोन (श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन का विदेश विभाग) से नियमित प्रसारित होने वाले कार्यक्रम - सुबह साढ़े सात से आठ बजे तक पुरानी फिल्मों का संगीत (इसमें उस समय के 20 वर्ष और अधिक अवधि के पुराने फिल्मी गीत बजा करते थे। अंतिम गीत हर हाल में गायक के.एल.सहगल का प्रसारित होता था। इस गीत को सुनकर पता चल जाता था कि सुबह के आठ बजने वाले हैं।) उस दौर के पुराने गीत जो इस कार्यक्रम में अक्सर बजा करते थे वे हैं -अफसाना लिख रही हूँ, आवाज दे कहाँ है, तू मेरा चाँद मैं तेरी चांदनी, तन डोले मेरा मन डोले, गाये जा गीत मिलन के, आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे, उड़ान खटोले पे उड़ जाऊँ, भगवान तुझे में खत लिखता, चोरी चोरी आग सी दिल में लगाके चल दिये, जब दिल ही टूट गया, बाबुल मोरा नैहर, गम दिए मुस्तक़िल कितना नाजुक था दिल, सो जा राज कुमारी, एक बंगला बने न्यारा, प्रेम नगर मैं बसाउंगी आदि। सहगल, सुरैया, अमीरबाई कर्नाटकी, उमा देवी, खुर्शीद, राजागुल, एस डी बातिश, जोहरा बाई अम्बालावाली आदि के स्वर इस कार्यक्रम में ज्यादातर सुनने मिलते थे।

सुबह 8 बजे से 9 बजे तक नई फिल्मों का फरमाइशी कार्यक्रम होता था। उस दौर की नई फिल्मों के ये गाने आप ही के गीत में बजा करते थे - गोरी ओ गोरी, प्रेम करले, ऐसा प्रेमी फिर ना मिलेगा, मैं एक राजा हूँ, चला जाता हूँ किसी की धुन में, धीरे धीरे बोल कोई सुन ना ले, बरखा रानी जरा जम के बरसो, दम मारो दम, हरे रामा हरे कृष्णा, इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा, पानी में जले मेरा गोरा बदन, वादा तेरा वादा, जब अंधेरा होता है, कभी कभी मेरे दिल में, मैं पल दो पल का शायर, ऐ जवानी ऐ दीवानी, मेरे दिल में आज क्या है आदि तत्कालीन नई फिल्मों के गीत।

सुबह 9 से 10 तक कोई न कोई साप्ताहिक कार्यक्रम होता था।

दोपहर 12 से 12.30 बहनों के लिए कार्यक्रम होते थे।
12.30 से 1.00 तक गैरफिल्मी गीत और गजल प्रसारित होते थे। जीयेंगे मगर मुस्कुरा न सकेंगे, मिल न सका दिल को अगर प्यार तुम्हारा, तेरे लबों के मुकाबिल गुलाब क्या होगा, हाँ में दीवाना हूँ, नथनी से टूटा मोती रे, प्यार भरा दिल तोड़ गए, सावन आया बादल छाए, तुम सामने बैठी रहो, इस दिल से तेरी याद, गजब किया तेरे वादे पे आदि।इस प्रोग्राम में रफी, मुकेश, आशा, लता, हेमंत, मन्नाडे के अलावा डैनी, राधा सलूजा, कमल बारोट आदि के भी गैर फिल्मी गीत सुनने को मिलते थे।

दोपहर 1.00 बजे से 2.00 बजे तक कुछ पचास के दशक और ज्यादातर साठ के दशक के गीतों का फरमाइशी कार्यक्रम जाने पहचाने गीत प्रसारित होता था। जैसे कुछ गीत - लाल लाल होठवा पे, सारंगा तेरी याद में, मेरा प्रेम पत्र पढ़कर, ओ महबूबा, महबूब मेरे, दिल के झरोखे में, कारवाँ गुजर गया, प्यार करले नहीं तो फाँसी चढ़ जाएगा, ओ मेरे सनम, पत्थर के सनम, तुझको पुकारे मेरा प्यार, दुनिया बनाने वाले, सजनवा बैरी हो गए हमार, प्रीत ये कैसी बोल रे दुनिया, ऐ मेरे दिले नादां, छुप गया कोई रे, सारी सारी रात तेरी याद सताए आदि समकालीन गीत।

साप्ताहिक कार्यक्रम -
रविवार की रात को 10 बजे से 11 बजे तक हमेशा जवां गीतों का फरमाइशी कार्यक्रम होता था।
शनिवार को शाम 7 से 7.30 तक एक रोचक कार्यक्रम "बदलते हुए साथी" होता था। इसमें एक गायक की आवाज से कार्यक्रम चालू होता था और दूसरे गायक की आवाज से कार्यक्रम का अंत होता था। इस बीच 6 गीतों की एक कड़ी होती थी। श्रोताओं के लिए यह कार्यक्रम एक चुनौती की तरह होता था। जैसे पूव में ही घोषणा होती थी कि अगले सप्ताह का बदलते हुए साथी कार्यक्रम शमशाद बेगम की आवाज से चालू होगा और हेमंत कुमार की आवाज से खत्म होगा। तब चैन ऐसे बनती थी -
शमशाद-रफी, रफी-सुमन,  सुमन-मुकेश,
मुकेश-आशा, आशा -लता, लता-हेमंत
इन छहों गीतों के फ़िल्म और गायक का नाम भेजना पड़ता था। तब कम चर्चित गायक का नाम शुरू या अंत में आता था तब गीत खोजने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी जैसे राजा गुल, एस डी बातिश, सुलोचना, अशोक कुमार आदि।

ऐसा ही दिलचस्प और पेचीदा एक कार्यक्रम रविवार की शाम 8 बजे से प्रसारित होता था। इसका नाम "वाक्य गीतांजलि" था। इसमें एक वाक्य दिया जाता था जिसके हर शब्द से शुरू होने वाले गीत का मुखड़ा और फ़िल्म का नाम लिख कर भेजना पड़ता था।
शुक्रवार को "पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना" कार्यक्रम आता था। आधे घंटे के इस कार्यक्रम में श्रोताओं की पसंद के गीत को क्यों पसंद है, इन विचारों के साथ प्रसारित किया जाता था।
गुरुवार को एक साहित्यिक कार्यक्रम "रेडियो पत्रिका" का प्रसारण होता था। इसे मनोहर महाजन पेश करते थे। इसमें साहित्यिक आलेख शामिल किए जाते थे।
गुरुवार को ही शाम 7.30 बजे से "जब आप गा उठे" कार्यक्रम आता था इसमें श्रोता एक भूमिका या घटना बना कर भेजते थे जिसके प्रासंगिक गीत भी श्रोता की ही पसंद का होता था।

रविवार की दोपहर को दलवीर सिंह परमार 1.00 बजे "कुछ इधर, कुछ उधर" कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। इसमें चुटकुले और हास्य कविताएँ शामिल की जाती थीं यह हास्य से भरपूर कार्यक्रम होता था।
मंगलवार को सुबह 9 बजे से एक रंग एक रूप कार्यक्रम प्रसारित होता था। इसमें श्रोता एक ही रंग के गीतों को एक कमेंट्री बना कर भेजते थे। उद्घोषक कमेंट्री पढ़ते हुए प्रेषित गीतों को सुनाया करते थे। यह होली, दीवाली जैसे त्यौहार से संबंधित भी हो सकता था, प्रेमी की पुकार से संबंधित भी हो सकता था, चाँद से संबंधित भी हो सकता था, रात से संबंधित भी हो सकता था, विरह गीतों का या मिलन गीतों का, श्रृंगार से संबंधित भी हो सकता था। कहने का मतलब एक घंटे तक एक ही विषय वस्तु के गीत इसमें शामिल होते थे।

रेडियो सिलोन से एक कार्यक्रम "भूले बिसरे गीत" का भी होता था। इसमें लगभग अनसुने से गीत, जो किन्हीं कारणों से पापुलर नहीं जो पाए, सुनाए जाते थे।
सप्ताह में एक दिन "हफ्ते के श्रोता" कार्यक्रम का प्रसारण होता था जिसमें श्रोताओं के पत्र शामिल होते थे। इन पत्रों में श्रोता का परिचय , पोस्टल एड्रेस, रुचि और शहर की खासियत का जिक्र होता था।

रेडियो के जमाने में श्रोताओं के बीच पत्र व्यवहार बहुत हुआ करता था। बहुत से मित्र इस पत्र व्यवहार के कारण घनिष्ठ हुए, यहाँ तक कि रेडियो सिलोन के कारण कुछ लोग दाम्पत्य सूत्र में भी बँध गए। रेडियो लोगों को जोड़ता था। टी वी ने लोगों के बीच दूरियाँ बढ़ा दी।

लिखने को अभीऔर भी बहुत कुछ है। यदि मित्रों को यह संस्मरण पसंद आया होतो इसका भाग - 2  भी लिख सकता हूँ।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़

Sunday, July 15, 2018

"कहाँ खजाना गड़ा हुआ है" ?


गजल -

सत्य जेल में पड़ा हुआ है
झूठ द्वार पर खड़ा हुआ है।।

बाँट रहा वह किसकी दौलत
कहाँ खजाना गड़ा हुआ है।।

उस दामन का दाग दिखे क्या
जिस पर हीरा जड़ा हुआ है।।

अब उससे उम्मीदें कैसी
वह तो चिकना घड़ा हुआ है।।

पाप कमाई, बाप कमाए
बेटा खाकर बड़ा हुआ है।।

लोकतंत्र का पेड़ अभागा
पत्ता पता झड़ा हुआ है।।

सत्ता का फल दिखता सुंदर
पर भीतर से सड़ा हुआ है।।

नर्म मुलायम दिल बेचारा
ठोकर खाकर कड़ा हुआ है।।

उसे राष्ट्रद्रोही बतला दो
"अरुण" अभी तक अड़ा हुआ है।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Friday, July 13, 2018

एक गजल - कुर्सी (अरुण कुमार निगम)

बहर
221 1222, 221 1222

कुछ काम नहीं करता, हर बार मिली कुर्सी
मंत्री का भतीजा है, उपहार मिली कुर्सी।।

गत सत्तर सालों में, कई रोग मिले तन को
जाँचा जो चिकित्सक ने, बीमार मिली कुर्सी।।

पाँवो को हुआ गठिया, है पीठ भी टेढ़ी-सी
लकवा हुआ हाथों को, लाचार मिली कुर्सी।।

फिर भी इसे पाने को, हर शख्स मचलता है
सेवा तो बहाना है, व्यापार मिली कुर्सी।।

कुछ पा न सके इसको, इक उम्र गँवा के भी
कुछ खास घरानों में, अधिकार मिली कुर्सी।।

है नाव सियासत की, उस पार खजाना है
जो लूट सके लूटे, पतवार मिली कुर्सी।।

जनता के खजाने को, क्या खूब लुटाती है
कहता है "अरुण" दिल से, दिलदार मिली कुर्सी।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, March 26, 2018

"कॉपी-पेस्ट सन्त के नाम टेलीग्राम"

हे कॉपी-पेस्ट सन्त !!! हे आधुनिक जगत के अवैतनिक दूत !!!  आपका समर्पण स्तुत्य है। सूर्योदय काल से रात्रि नीम विश्राम बेला तक आपका परोपकारी व्यक्तित्व, पराई पोस्ट को कॉपी-पेस्ट करते नहीं थकता। इस व्यस्तता में आप स्वयं सृजन शून्य हो जाते हैं। शून्य ही तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड का एकमात्र सत्य है। आज मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि किसी दूसरे के बारे में सोचता ही नहीं है। ऐसे कालखंड में स्वयं के सृजन को त्याग कर आप पराये सृजन का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। यही कार्य आपको महानता प्रदान कर रहा है।

आपकी उदारता,किसी की भी पोस्ट की गुणवत्ता और गुणहीनता में तनिक भी भेदभाव नहीं रखती। ऐसी उदारता आपको समदर्शी बनाती है। आप कई बार दूसरों की रचनाओं को भी बिना उनका नाम दिए पेल देते हैं। अज्ञानता का अंधकार आज चारों दिशाओं में फैला हुआ है शायद इसी कारण से रचनाकार व्यर्थ ही आप पर रचना चोरी का आरोप लगा देते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि नाम में क्या रखा है। देवकी और यशोदा के अंतर को समझ पाना सबके लिए संभव भी कहाँ होता है।

हे कर्मनिष्ठ !!! अपने कर्तव्य के पालन हेतु आपने अपने स्वास्थ्य को भी  दाँव पर लगा दिया है। न प्रातः भ्रमण, न व्यायाम, न योगा, न विश्राम !!! और तो और नाश्ते और भोजन को भी आप पर्याप्त समय नहीं दे पाते। आपके मित्र, परिजन, परिचित और इष्टजन अज्ञानता में आप पर नानाविध दोषारोपण करते रहते हैं। ये सब नादान है, आपके सत्कर्मों का मूल्यांकन करना इनके बूते के बाहर है।  इतिहास गवाह है कि हर महान व्यक्ति को शुरू शुरू में कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा है। आपका विशाल हृदय उनकी नादानियों को नजरअंदाज करता हुआ कर्तव्य मार्ग पर सतत चलते ही रहता है।

आपके कार्यक्षेत्र की विशालता, बाप रे बाप !!! साहित्य, संगीत, विविध कलाएँ, इतिहास, भूगोल, धर्म,  राजनीति, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र, गाँव, मुहल्ला, देश, विदेश, ब्रम्हाण्ड, भौतिकी, रसायन, जीव-वनस्पति विज्ञान, आकाश, धरा, पाताल, नेता, प्रशासन, सत्ता, विपक्ष, अखबार, मीडिया......क्या क्या नहीं होता आपकी पोस्टों में। प्रगतिशील ऐसे कि आडियो-वीडियो भी आपकी नजर से अछूते नहीं रह पाते हैं। आप गुडमार्निंग से गुडनाइट तक व्याप्त हैं।

आपकी स्तुति में और क्या कहूँ ? आप स्तुति में विश्वास भी तो नहीं रखते।ज्यादा लम्बी पोस्ट को कोई पढ़ता नहीं है इसीलिए इस तार को चिट्ठी समझ कर पढ़ लेना और सोशल मीडिया को अपने ज्ञान से आलोकित करते रहना।

*अरुण कुमार निगम*
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Saturday, January 13, 2018

दोहा गीत - अरुण कुमार निगम

गूंगे बतलाने चले, देखो गुड़ का स्वाद
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

हाल हंस का देख कर, मैना बैठी मूक
मान मोर का छिन गया, कोयल भूली कूक।।
गर्दभ गायन कर रहे, कौवे देते दाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

गायें लावारिस हुईं, कुत्ते बैठे गोद
विज्ञ हाशिये पर गए, मूर्ख मनाते मोद।।
भैंस खड़ी पगुरा रही, कैसे हो संवाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

चमगादड़ पहना रहे, उल्लू के सिर ताज
शेर-बाघ हैं जेल में, गीदड़ का है राज।।
निर्णायक है भेड़िया, कौन करे फरियाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

अश्रु बहाने के लिए, तत्पर हैं घड़ियाल
लड़े जहाँ पर बिल्लियाँ, बंदर खाते माल।।
सभी जगह यह हाल है, नहीं कहीं अपवाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Tuesday, January 9, 2018

दोहा गीत - अरुण कुमार निगम

दोहा-गीत

वन उपवन खोते गए, जब से हुआ विकास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

पवन विषैली आज की, पनप रहे हैं रोग ।
जल की निर्मलता गई, आये जब उद्योग ।।
अजगर जैसे आज तो, शहर निगलते गाँव ।
बुलडोजर खाने लगे, अमराई की छाँव ।।

वर्तमान में हैं सभी, सुविधाओं के दास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

रही नहीं मुंडेर अब, रहे नहीं अब काग ।
पाहुन अब आते नहीं, मिटा स्नेह-अनुराग ।।
वन्य जीव की क्या कहें, गौरैया भी लुप्त ।
रहा नहीं वातावरण, जीने को उपयुक्त ।।

उत्सव की संख्या बढ़ी, मन का गया हुलास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

पुत्र पिता-हन्ता हुआ, माँ के हरता प्राण ।
मनुज मशीनों में ढला, कौन करे परित्राण ।।
भाई भाई लड़ रहे, कैसा आया दौर ।
राम-राज दिखता नहीं, रावण हैं सिरमौर ।।

प्रतिदिन होता जा रहा, मानवता का ह्रास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़