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Wednesday, December 13, 2017

सरसी छन्द आधारित गीत

      क्या होगा भगवान !

अधजल गगरी करवाती है, अपना ही सम्मान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

(1)
काँव काँव का शोर मचाते, दरबारों में काग
बहरे राजा जी का उन पर, उमड़ रहा अनुराग।
अवसर पाकर उल्लू भी अब, छेड़ रहे हैं तान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

(2)
भूसे को पौष्टिक बतलाकर, बेच रहे हैं ख्वाब
जिसको खाकर नवपीढ़ी की, सेहत हुई खराब।
परम्परागत खानपान का, होता अब अपमान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

(3)
मातु पिता को त्याग बढ़ रहे, अब एकल परिवार
सुविधाओं के लेनदेन को, समझ रहे हैं प्यार।
आया पाल रही बच्चों को, स्वयं पालते श्वान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

(4)
लखपति अब दिख रहे कबाड़ी, निर्धन दिखें सुनार
पनप रहे उद्योग लौह के, भूखे रहे लुहार।
गल्ले के व्यापारी खुश हैं, रोते दिखें किसान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

(5)
राजनीति में साँड़ घुस गए, डाले कौन नकेल
जिलाधीश को डाँट रहे हैं, नेता चौथी फेल।
सच्चों की तो शामत आई, झूठों की है शान
भरी गगरिया पूछ रही है, क्या होगा भगवान !!

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़

Tuesday, November 28, 2017

आज के काव्य-मंच - आल्हा छन्द

काव्य मंच की गरिमा खोई, ऐसा आज चला है दौर
दिखती हैं चुटकुलेबाजियाँ, फूहड़ता है अब सिरमौर ।।

कहीं राजनेता पर फब्ती, कवयित्री पर होते तंज
अभिनेत्री पर कहीं निशाना, मंच हुआ है मंडी-गंज ।।

मौलिकता का नाम नहीं है, मर्यादा होती अब ध्वस्त
भौंडापन कोई दिखलाता, पैरोडी में कोई मस्त ।।

तथाकथित कवियों में पनपा, सभी तरफ अब लॉबीवाद
एक सूत्र "तू मुझे याद कर - तुझे करूंगा मैं भी याद" ।।

सम्प्रदाय की बातें कहकर, कोई लगा रहा है आग
देव तुल्य हस्ती के दामन, कोई लगा रहा है दाग ।।

नाम वीर-रस का ले लेकर, चीख रहे कुछ बन कर वीर
देश-प्रेम का ढोंग रचा कर, छोड़ रहे विष-भीने तीर ।।

अचरज लगता जिन्हें नहीं है, साहित का थोड़ा भी ज्ञान
सरकारें ऐसे कवियों का, आज कर रही हैं सम्मान ।।

सबका हित हो जिसमें शामिल, वही कहाता है साहित्य
भेदभाव को तज कर जैसे, रश्मि बाँटता है आदित्य ।।

पहले के कवियों का लेते, अब भी हम श्रद्धा से नाम
बचपन में जिनको सुनते थे,जाग-जाग कर रात तमाम ।।

काका हाथरसी की कविता, शिष्ट हास्य का थी भंडार
देश प्रेम की गंग बहाने,  आते थे अब्दुल जब्बार ।।

नीरज के आते बहती थी, हृदय-कर्ण में रस की धार
मंत्रमुग्ध होते थे श्रोता, सुन उनका दर्शन श्रृंगार ।।

शैल,चक्रधर, हुल्लड़, माया, सोम, शरद, सोलंकी, व्यास
मधुप, प्रभा, नूतन, बैरागी, ऐसे कितने कवि थे खास ।।

अब भी अच्छे कवि हैं लेकिन, कौन उन्हें देता है मंच
आयोजन करवाने वाले, आयोजक ही रहे न टंच ।।

अच्छे-सच्चे कवि को लेकिन, नहीं रहा मंचों का मोह
अगर मंच का नशा चढ़ा तो, समझो लेखन का अवरोह ।।

अगर सहज ही मंच मिले तो, मत हो जाना मद में चूर
सच्ची कवितायें ही पढ़ना, रह लटके-झटके से दूर ।।

सुहावने हैं ढोल दूर के, आज - मंच हों या सम्मान
अरुण दे रहा है आल्हा में, वर्तमान का सच्चा ज्ञान ।।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Thursday, November 9, 2017

"यहाँ हमारा सिक्का खोटा"

"यहाँ हमारा सिक्का खोटा"

निर्धन को खुशियाँ तब मिलतीं, जब होते दुर्लभ संयोग
हमको अपनी बासी प्यारी, उन्हें मुबारक छप्पन भोग।।

चन्द्र खिलौना लैहौं वाली, जिद कर बैठे थे कल रात
अपने छोटे हाथ देखकर, पता चली अपनी औकात।।

जो चलता है वह बिकता है, प्यारे ! यह दुनिया बाजार
यहाँ हमारा सिक्का खोटा, जिसको हम कहते हैं प्यार।।

लेन देन में घाटा सहते, गणित हमारा है कमजोर
ढाई आखर ही पढ़ पाए, ले दे के हम दाँत निपोर।।

हम कबीर के साथ चले हैं, लिए लुआठी अपने हाथ
जो अपना घर कुरिया फूँके, आये वही हमारे साथ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, October 27, 2017

यमक और रूपक अलंकार

*यमक अलंकार - जब एक शब्द, दो या दो से अधिक बार अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हो*।

*दोहा छन्द* -
(1)
मत को मत बेचो कभी, मत सुख का आधार
लोकतंत्र का मूल यह, निज का है अधिकार ।।
(2)
भाँवर युक्त कपोल लख, अंतस जागी चाह
भाँवर पूरे सात लूँ, करके उससे ब्याह ।।

*रूपक अलंकार - जब उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाए अर्थात उपमेय और उपमान में कोई अंतर दिखाई न दे*।

*रोला छन्द* -
(1)
नयन-झील में डूब, प्रेम-मुक्ता पा जाऊँ
छूटे जग-जंजाल, आरती पिय की गाऊँ।
यही कामना आज, हृदय में मेरे जागी
पिय को दो संदेश, हुआ है मन अनुरागी।।
(2)
अधर-पाँखुरी देख, हृदय-भँवरा ललचाया
करने को रसपान, निकट चुपके से आया।
सखि-कंटक चहुँओर, करे कैसे मनचीता
उहापोह में हाय, समय सारा ही बीता ।।

*अरुण कुमार निगम*

Wednesday, August 23, 2017

एक श्रृंगार गीत

एक श्रृंगार गीत -

कजरे गजरे झाँझर झूमर चूनर ने उकसाया था
हार गले के टूट गए कुछ ऐसे अंक लगाया था ।

हरी चूड़ियाँ टूट गईं क्यों सुबह सुबह तुम रूठ गईं
कल शब तुमने ही तो मुझको अपने पास बुलाया था।

हाथों की मेंहदी न बिगड़ी और महावर ज्यों की त्यों
होठों की लाली को तुमने खुद ही कहाँ बचाया था।

जितनी करवट उतनी सलवट इस पर काहे का झगड़ा
रेशम की चादर को बोलो किसने यहाँ बिछाया था।

झूठ कहूँ तो कौआ काटे मैंने दिया जलाया था
खता तुम्हारी थी तुमने तो खुद ही दिया बुझाया था।

नई चूड़ियाँ ले लेना तुम हार नया बनवा लेना
अभी अभी तो पिछले हफ्ते ही इनको बनवाया था।

*अरुण कुमार निगम*
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Thursday, July 13, 2017

दोहा छन्द

दोहा छन्द

नैसर्गिक दिखते नहीं, श्यामल कुन्तल मीत
लुप्तप्राय हैं वेणियाँ, शुष्क हो गए गीत।।

पैंजन चूड़ी बालियाँ, बिन कैसा श्रृंगार
अलंकार बिन किस तरह, कवि लाये झंकार ।।

घट पनघट घूंघट नहीं, निर्वासित है लाज
बन्द बोतलों में तृषा, यही सत्य है आज ।।

प्रियतम की पाती गई, गए अबोले बैन
रहे न अब वे डाकिया, जिनको तरसें नैन ।।

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, July 9, 2017

*रोला छन्द* - *गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें*

*गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें*

गुरु की महिमा जान, शरण में गुरु की जाओ
जीवन  बड़ा  अमोल, इसे  मत  व्यर्थ गँवाओ
दूर   करे   अज्ञान , वही   गुरुवर   कहलाये
हरि  से  पहले  नाम, हमेशा  गुरु  का  आये ।।

*अरुण कुमार निगम*
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, July 3, 2017

गजल : खुशी बाँटने की कला चाहता हूँ

गजल : खुशी  बाँटने की  कला  चाहता हूँ

न पूछें मुझे आप  क्या  चाहता हूँ
खुशी  बाँटने की  कला  चाहता हूँ |

गज़ल यूँ लिखूँ लोग गम भूल जायें
ये समझो सभी का भला चाहता हूँ |

बिना कुछ पिये झूमता ही रहे दिल  
पुन: गीत डम-डम डिगा चाहता हूँ |

न कोला न थम्सप न फैंटा न माज़ा
मृदा का बना  मैं  घड़ा  चाहता हूँ |

न पिज्जा न बर्गर न मैगी न नूडल
स्वदेशी  कलेवा  सदा  चाहता हूँ |

पुरस्कार के सच लगे दण्ड जैसे
इन्हें अब नहीं भोगना चाहता हूँ |

उठा आज डॉलर गिरा क्यों रुपैया
यही  प्रश्न  मैं  पूछना चाहता हूँ |

कहाँ खो गये प्रेम के ढाई आखर
मुझे साथ दो, ढूँढना चाहता हूँ |

हमें आ गया याद गाना पुराना
तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, July 2, 2017

गजल

शायद असर होने को है...


माँगने हक़ चल पड़ा दिल दरबदर होने को है
खार ओ अंगार में इसकी बसर होने को है |

बात करता है गजब की ख़्वाब दिखलाता है वो
रोज कहता जिंदगी अब, कारगर होने को है |

आज ठहरा शह्र में वो, झुनझुने लेकर नए
नाच गाने का तमाशा रातभर होने को है |

छीन कर सारी मशालें पी गया वो रोशनी
फ़क्त देता है दिलासा, बस सहर होने को है |

अब हकीकत को समझने लग गए हैं सब यहाँ
मुफलिसों की आह का शायद असर होने को है |


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, July 1, 2017

आप कितने बड़े हो गए हैं

ग़ज़ल पर एक प्रयास -

आप कितने बड़े हो गए हैं
वाह चिकने घड़े हो गए हैं

पाँव पड़ते नहीं हैं जमीं पे
कहते फिरते, खड़े हो गए हैं

दिल धड़कता कहाँ है बदन में
हीरे मोती जड़े हो गए हैं

पत्थरों की हवेली बनाकर
पत्थरों से कड़े हो गए हैं

शान शौकत नवाबों सरीखी
फिर भी क्यों चिड़चिड़े हो गए हैं ।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, May 21, 2017

अरुण दोहे -

अरुण दोहे -

पद के मद में चूर है, यारों उनका ब्रेन
रिश्तों में भी कर रहे, डेकोरम मेन्टेन ।।

साठ साल की उम्र तक, पद-मद देगा साथ
बिन रिश्तों के मान्यवर, खाली होंगे हाथ ।।

पद-मद नश्वर जानिए, चिरंजीव है प्यार
संग रहेगी नम्रता, अहंकार बेकार ।।

लाट गवर्नर आज हो, कल होगे तुम आम
सिर्फ एक पद "पेंशनर", फिर आएगा काम ।।

पद-पैसों के दर्प में, हमें न जायें भूल
अरुण अभी भी वक्त हैं, बदलें चंद असूल ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, April 22, 2017

बेला के फूल

दोहा छन्द - बेला के फूल 

स्पर्धा थी सौंदर्य की, मौसम था प्रतिकूल
सूखे फूल गुलाब के, जीते बेला फूल |


चली चिलकती धूप में, जब मजदूरन नार 
अलबेली को देख कर, बेला मानें हार | 

हरदम हँसता देख कर, चिढ़-चिढ़ जाये धूप
बेला की मुस्कान ने, और निखारा रूप | 
पहले गजरे की महक, कैसे जाऊँ भूल 
सुधियों में अब तक खिले, अलबेला के फूल |

मंगल-बेला में हुआ, मन से मन का ब्याह
मन्त्र पढ़े थे नैन ने, बेला बना गवाह |
 

बेलापुर से रामगढ़, चले बसंती रोज 
बेला का गजरा लिये, वीरू करे प्रपोज |



- अरुण कुमार निगम
 

Saturday, April 15, 2017

कुण्डलिया छन्द: पलाश का फूल

कुण्डलिया छन्द:

पहचाना जाता नहीं,  अब पलाश का फूल
इस कलयुग के दौर में, मनुज रहा है भूल
मनुज रहा है भूल,   काट कर सारे जंगल
कंकरीट में  बैठ,  ढूँढता  अरे  सुमङ्गल
तोड़ रहा है नित्य,  अरुण कुदरत से नाता

अब पलाश का फूल,  नहीं पहचाना जाता।।

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, March 6, 2017

आम गज़ल .....

आम गज़ल .....

आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ ।

मैं नहीं दिखता बजट में
हर गज़ट पलटा रहा हूँ ।

फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ ।

गुठलियाँ किसने गिनी हैं
रस मधुर बरसा रहा हूँ ।

होम में जल कर, सभी की
कामना पहुँचा रहा हूँ ।

द्वार पर तोरण बना मैं
घर में खुशियाँ ला रहा हूँ ।

कौन पानी सींचता है
जी रहा खुद गा रहा हूँ ।

मीत उनको “कल” मुबारक
“आज” मैं जीता रहा हूँ ।

“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ ।

- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, March 5, 2017

जनकवि कोदूराम "दलित" : १०७ वीं जयंती पर विशेष


जनकवि कोदूराम “दलित” की साहित्य साधना :
( 5 मार्च को 107 वीं जयन्ती पर विशेष) : शकुन्तला शर्मा 

मनुष्य भगवान की अद्भुत रचना है, जो कर्म की तलवार और कोशिश की ढाल से, असंभव को संभव कर सकता है । मन और मति के साथ जब उद्यम जुड जाता है तब बड़े बड़े  तानाशाह को झुका देता है और लंगोटी वाले बापू गाँधी की हिम्मत को देख कर, फिरंगियों को हिन्दुस्तान छोड़ कर भागना पड़ता है । मनुष्य की सबसे बड़ी पूञ्जी है उसकी आज़ादी, जिसे वह प्राण देकर भी पाना चाहता है, तभी तो तुलसी ने कहा है - ' पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।' तिलक ने कहा - ' स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे ।' सुभाषचन्द्र बोस ने कहा - ' तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा ।' सम्पूर्ण देश में आन्दोलन हो रहा था, तो भला छत्तीसगढ़ स्थिर कैसे रहता ? छत्तीसगढ़ के भगतसिंह वीर नारायण सिंह को फिरंगियों ने सरेआम फाँसी पर लटका दिया और छत्तीसगढ़ ' इंकलाब ज़िंदाबाद ' के निनाद से भर गया, ऐसे समय में ' वंदे मातरम् ' की अलख जगाने के लिए, कोदूराम 'दलित' जी आए और उनकी छंद - बद्ध रचना को सुनकर जनता मंत्र – मुग्ध हो गई  -

" अपन - देश आज़ाद  करे -  बर, चलो  जेल - सँगवारी
 कतको झिन मन चल देइन, आइस अब - हम रो- बारी।
जिहाँ लिहिस अवतार कृष्ण हर,भगत मनन ला तारिस
दुष्ट- जनन ला मारिस अउ,   भुइयाँ के भार - उतारिस।
उही  किसम जुर - मिल के हम, गोरा - मन ला खेदारी
अपन - देश आज़ाद  करे  बर चलो - जेल - सँगवारी।"

15 अगस्त सन् 1947 को हमें आज़ादी मिल गई, तो गाँधी जी की अगुवाई में दलित जी ने जन - जागरण को संदेश दिया –

" झन सुत सँगवारी जाग - जाग, अब तोर देश के खुलिस भाग
सत अउर अहिंसा सफल रहिस, हिंसा के मुँह मा लगिस आग ।
जुट - मातृ - भूमि के सेवा मा, खा - चटनी बासी - बरी - साग
झन सुत सँगवारी जाग - जाग, अब तोर देश के खुलिस भाग ।
उज्जर हे तोर- भविष्य - मीत,फटकार - ददरिया सुवा - राग
झन सुत सँगवारी जाग - जाग अब तोर देश के खुलिस भाग ।"

हमारे देश की पूँजी को लूट कर, लुटेरे फिरंगी ले गए, अब देश को सबल बनाना ज़रूरी था, तब दलित ने जन -जन से, देश की रक्षा के लिए, धन इकट्ठा करने का बीड़ा उठाया –

कवित्त –

" देने का समय आया, देओ दिल खोल कर, बंधुओं बनो उदार बदला ज़माना है
देने में ही भला है हमारा औ’ तुम्हारा अब, नहीं देना याने नई आफत बुलाना है।
देश की सुरक्षा हेतु स्वर्ण दे के आज हमें, नए- नए कई अस्त्र- शस्त्र मँगवाना है
समय को परखो औ’ बनो भामाशाह अब, दाम नहीं अरे सिर्फ़ नाम रह जाना है।"

छत्तीसगढ़ के ठेठ देहाती कवि कोदूराम दलित ने विविध छंदों में छत्तीसगढ़ की महिमा गाई है। भाव - भाषा और छंद का सामञ्जस्य देखिए –

चौपाई छंद

"बन्दौं छत्तीसगढ़ शुचिधामा, परम - मनोहर सुखद ललामा
जहाँ सिहावादिक गिरिमाला, महानदी जहँ बहति विशाला।
जहँ तीरथ राजिम अति पावन, शबरीनारायण मन भावन
अति - उर्वरा - भूमि जहँ केरी, लौहादिक जहँ खान घनेरी ।"

कुण्डलिया छन्द -

" छत्तीसगढ़ पैदा - करय अड़बड़ चाँउर - दार
हवयँ इहाँ के लोग मन, सिधवा अऊ उदार ।
सिधवा अऊ उदार हवयँ दिन रात कमावयँ
दे - दूसर ला मान, अपन मन बासी खावयँ ।
ठगथें ए बपुरा- मन ला बंचक मन अड़बड़
पिछड़े हावय अतेक इही कारण छत्तीसगढ़ ।"

सार  छंद -

" छन्नर छन्नर चूरी बाजय खन्नर खन्नर पइरी
हाँसत कुलकत मटकत रेंगय बेलबेलहिन टूरी ।
काट काट के धान - मढ़ावय ओरी - ओरी करपा
देखब मा बड़ निक लागय सुंदर चरपा के चरपा ।
लकर धकर बपरी लइकोरी समधिन के घर जावै
चुकुर - चुकुर नान्हें बाबू ला दुदू पिया के आवय।
दीदी - लूवय धान खबा-खब भाँटो बाँधय - भारा
अउहाँ झउहाँ बोहि - बोहि के भौजी लेगय ब्यारा।"

खेती का काम बहुत श्रम - साध्य होता है, किंतु दलित जी की कलम का क़माल है कि वे इस दृश्य का वर्णन, त्यौहार की तरह कर रहे हैं। इन आठ पंक्तियों से सुसज्जित सार छंद में बारह दृश्य हैं, मुझे ऐसा लगता है कि दलित जी की क़लम में एक तरफ निब है और दूसरी ओर तूलिका है, तभी तो उनकी क़लम से लगातार शब्द - चित्र बनते रहते है और पाठक भाव - विभोर हो जाता है, मुग्ध हो जाता है ।

निराला की तरह दलित भी प्रगतिवादी कवि हैं । वे समाज की विषमता को देखकर हैरान हैं, परेशान हैं और सोच रहें हैं कि हम सब, एक दूसरे के सुख - दुःख को बाँट लें तो विषमता मिट जाए –

मानव की -

" जल पवन अगिन जल के समान यह धरती है सब मानव की
हैं  किन्तु कई - धरनी - विहींन यह करनी है सब - मानव की ।
कर - सफल - यज्ञ  भू - दान विषमता हरनी है सब मानव की
अविलम्ब - आपदायें - निश्चित ही हरनी - है सब- मानव की ।"

श्रम का सूरज (कवित्त)

" जाग रे भगीरथ - किसान धरती के लाल, आज तुझे ऋण मातृभूमि का चुकाना है
आराम - हराम वाले मंत्र को न भूल तुझे, आज़ादी की - गंगा घर - घर पहुँचाना है ।
सहकारिता से काम करने का वक्त आया, क़दम - मिला के अब चलना - चलाना है
मिल - जुल कर उत्पादन बढ़ाना है औ’, एक - एक दाना बाँट - बाँट - कर खाना है ।"

सवैया -

" भूखों - मरै उत्पन्न करै जो अनाज पसीना - बहा करके
बे - घर हैं  महलों को बनावैं जो धूप में लोहू - सुखा करके ।
पा रहे कष्ट स्वराज - लिया जिनने तकलीफ उठा - करके
हैं कुछ चराट चलाक उड़ा रहे मौज स्वराज्य को पा करके ।"

गरीबी की आँच को क़रीब से अनुभव करने वाला एक सहृदय कवि ही इस तरह, गरीबी को अपने साथ रखने की बात कर रहा है । आशय यह है कि - " गरीबी ! तुम यहाँ से नहीं जाओगी, जो हमारा शोषण कर रहे हैं, वे तुम्हें यहाँ से जाने नहीं देंगे और जो भूखे हैं वे भूखे ही रहेंगे ।" जब कवि समझ जाता है कि हालात् सुधर नहीं सकते तो कवि चुप हो जाता है और उसकी क़लम उसके मन की बात को चिल्ला - चिल्ला कर कहती है -

 गरीबी 

" सारे गरीब नंगे - रह कर दुख पाते हों तो पाने दे
दाने दाने के लिए तरस मर जाते हों मर जाने दे ।
यदि मरे - जिए कोई तो इसमें तेरी गलती - क्या
गरीबी तू न यहाँ से जा ।"

कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि गाय जो हमारे जीवन की सेतु है, जो ' अवध्या' है, उसी की हत्या होगी और सम्पूर्ण गो - वंश का अस्तित्व ही खतरे में पड जाएगा । दलित जी ने गो - माता की महिमा गाई है । बैलों की वज़ह से हमें अन्न - धान मिल जाता है और गो -रस की मिठास तो अमृत -तुल्य होती है। दलित जी ने समाज को यह बात बताई है कि-"गो-वर को केवल खाद ही बनाओ,उसे छेना बना कर अप-व्यय मत करो" -

 गो - वध बंद करो

" गो - वध बंद करो जल्दी अब, गो - वध बंद करो
भाई इस - स्वतंत्र - भारत में, गो - वध बंद करो ।
महा - पुरुष उस बाल कृष्ण का याद करो तुम गोचारण
नाम पड़ा गोपाल कृष्ण का याद करो तुम किस कारण ?
माखन- चोर उसे कहते हो याद करो तुम किस कारण
जग सिरमौर उसे कहते हो, याद करो तुम किस कारण ?
मान रहे हो देव - तुल्य उससे तो तनिक-- डरो ॥

समझाया ऋषि - दयानंद ने, गो - वध भारी पातक है
समझाया बापू ने गो - वध राम राज्य का घातक है ।
सब  - जीवों को स्वतंत्रता से जीने - का पूरा - हक़ है
नर पिशाच अब उनकी निर्मम हत्या करते नाहक हैं।
सत्य अहिंसा का अब तो जन - जन में भाव - भरो ॥

जिस - माता के बैलों- द्वारा अन्न - वस्त्र तुम पाते हो
जिसके दही- दूध मक्खन से बलशाली बन जाते हो ।
जिसके बल पर रंगरलियाँ करते हो मौज - उड़ाते हो
अरे उसी - माता के गर्दन- पर तुम छुरी - चलाते हो।
गो - हत्यारों चुल्लू - भर - पानी में  डूब - मरो
गो -रक्षा गो - सेवा कर भारत का कष्ट - हरो ॥"

शिक्षक की नज़र पैनी होती है । वह समाज के हर वर्ग के लिए सञ्जीवनी दे - कर जाता है । दलित जी ने बाल - साहित्य की रचना की है, बच्चे ही तो भारत के भविष्य हैं -

वीर बालक

"उठ जाग हिन्द के बाल - वीर तेरा भविष्य उज्ज्वल है रे ।
मत हो अधीर बन कर्मवीर उठ जाग हिन्द के बाल - वीर।"

अच्छा बालक पढ़ - लिख कर बन जाता है विद्वान
अच्छा बालक सदा - बड़ों का करता  है सम्मान ।
अच्छा बालक रोज़ - अखाड़ा जा - कर बनता शेर
अच्छा बालक मचने - देता कभी नहीं - अन्धेर ।
अच्छा बालक ही बनता है राम लखन या श्याम
अच्छा बालक रख जाता है अमर विश्व में नाम ।"

अब मैं अपनी रचना की इति की ओर जा रही हूँ, पर दलित जी की रचनायें मुझे नेति - नेति कहकर रोक रही हैं । दलित जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । समरस साहित्यकार, प्रखर पत्रकार, सजग प्रहरी, विवेकी वक्ता, गंभीर गुरु, वरेण्य विज्ञानी, चतुर चित्रकार और कुशल किसान ये सभी उनके व्यक्तित्व में विद्यमान हैं, जिसे काल का प्रवाह कभी धूमिल नहीं कर सकता ।


हरि ठाकुर जी के शब्दों में -

" दलित जी ने सन् -1926 से लिखना आरम्भ किया उन्होंने लगभग 800 कवितायें लिखीं,जिनमें कुछ कवितायें तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और कुछ कविताओं का  प्रसारण आकाशवाणी से हुआ । आज छत्तीसगढ़ी में लिखने वाले निष्ठावान साहित्यकारों की पूरी पीढ़ी सामने आ चुकी है किंतु इस वट - वृक्ष को अपने लहू - पसीने से सींचने वाले, खाद बन कर, उनकी जड़ों में मिल जाने वाले साहित्यकारों को हम न भूलें।"

साहित्य का सृजन, उस परम की प्राप्ति के पूर्व का सोपान है । जब वह अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है तो अपना परिचय कुछ इस तरह देता है, और यहीं पर उसकी साधना सम्पन्न होती है -

आत्म परिचय - 

" मुझमें - तुझमें सब ही में रमा वह राम हूँ- मैं जगदात्मा हूँ
सबको उपजाता हूँ पालता- हूँ करता सबका फिर खात्मा हूँ।
कोई मुझको दलित भले ही कहे पर वास्तव में परमात्मा हूँ
तुम ढूँढो मुझे मन मंदिर में मैं मिलूँगा तुम्हारी ही आत्मा हूँ।"

शकुन्तला शर्मा, भिलाई                                                    
मो. 
9302830030