(चित्र ओबीओ से साभार)
कुकुभ
छन्द – पहला दृश्य
एक
सरीखी प्रात: संध्या,जीवन की सच्चाई रे
एक
सूर्य को आमंत्रण दे , दूजी करे विदाई रे
कालचक्र
की आवा-जाही, देती किसे दिखाई रे
तालमेल
का ताना-बाना, सुन्दर बुनना भाई रे
कुकुभ
छन्द – दूसरा दृश्य
दादा
की बाँहों में खेले , बड़भागी वह पोता है
एकल
परिवारों में पोता , मन ही मन में रोता है
हर घर
की यह बात नहीं पर , अक्सर ऐसा होता है
सुविधाओं
की दौड़-भाग में,जीवन-सुख क्यों खोता है
कुकुभ
छन्द – तीसरा दृश्य
पोता
कूदे , दादा थामे , यही भरोसा कहलाता
यही
भरोसा जोड़े रखता , मन से मन का हर नाता
ना मन
में संदेह जरा-सा, और नहीं डर का साया
देख
चित्र को मेरे मन में , यारों बस इतना आया