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Tuesday, January 27, 2015

रूपमाला छन्द :
















रूपमाला छन्द :

एक पटरी सुख कहाती , एक का दुख नाम
किन्तु होती साथ दोनों , सुबह हो या शाम
मिलन इनका दृष्टि-भ्रम है, मत कहो मजबूर
एक  ही  उद्देश्य  इनका , हैं  परस्पर  दूर  

चल रही इन पटरियों पर , जिंदगी की रेल
खेलती  विधुना  हमेशा , धूप - छैंया खेल
साँस के लाखों मुसाफिर, सफर करते नित्य
जानता  आवागमन का  कौन है  औचित्य

अड़चनों की गिट्टियाँ भी , खूब देतीं साथ
लौह-पथ  मजबूत  करने , में बँटाती हाथ
भावनाओं  में  कभी भी , हो नहीं टकराव 
सुख मिले या दुख मिले बस, एक-सा हो भाव

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)  
(ओबीओ चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव -45 में सम्मिलित मेरी रचना)
चित्र ओबीओ से साभार

Sunday, January 18, 2015

अच्छे दिन :



अच्छे दिन :
कब लौटेंगे  यारों अपने  , बचपन वाले अच्छे दिन
छईं-छपाक, कागज़ की कश्ती, सावन वाले अच्छे दिन 

गिल्ली-डंडा, लट्टू चकरी , छुवा-छुवौवल, लुकाछिपी
तुलसी-चौरा, गोबर लीपे आँगन वाले अच्छे दिन 

हाफ-पैंट, कपड़े का बस्ता, स्याही की दावात, कलम
शाला की छुट्टी की घंटी, टन-टन वाले अच्छे दिन
 
मोटी रोटी, दाल-भात में देशी घी अपने घर का
नन्हा-पाटा, फुलकाँसे के बरतन वाले अच्छे दिन 

बचपन बीता, सजग हुये कुछ और सँवरना सीख गये
मन को भाते, बहुत सुहाते, दरपन वाले अच्छे दिन 

छुपा छुपाकर नाम हथेली पर लिख-लिख कर मिटा दिया
याद करें तो कसक जगाते, यौवन वाले अच्छे दिन 

निपट निगोड़े सपने सारे , नौकरिया ने निगल लिये
वेतन वाले से अच्छे थे, ठन–ठन वाले अच्छे दिन
 
फिर फेरों के फेरे में पड़ , फिरकी जैसे घूम रहे
मजबूरी में कहते फिरते, बन्धन वाले अच्छे दिन 

दावा वादा व्यर्थ तुम्हारा , बहल नहीं हम पायेंगे
क्या दे पाओगे तुम हमको, बचपन वाले अच्छे दिन
 
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (chhattiछत्तीसगढ़)

Monday, January 12, 2015

अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये......



अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये......

कैसे    कैसे   मंजर    आये   प्राणप्रिये
अपने    सारे    हुये   पराये   प्राणप्रिये |

सच्चे  की  किस्मत  में  तम  ही  आया है
अब  तो  झूठा  तमगे   पाये   प्राणप्रिये |

ज्ञान  भरे  घट  जाने  कितने  दफ्न हुये
अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये |


भूखे - प्यासे  हंसों  ने  दम  तोड़  दिया
अब  कौआ  ही  मोती  खाये  प्राणप्रिये |

यहाँ  राग - दीपक  की  बातें करता था
वहाँ   राग – दरबारी   गाये  प्राणप्रिये |
 
सोने    चाँदी   की   मुद्रायें   लुप्त  हुईं
खोटे  सिक्के  चलन  में  आये  प्राणप्रिये |

सच्चाई   के    पाँव   पड़ी   हैं   जंजीरें
अब तो बस भगवान बचाये  प्राणप्रिये |

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Wednesday, January 7, 2015

लघु कथा



तकलीफ  :
लगभग एक माह पूर्व बेटे का विदेश से फोन आया था कि वह मिलने आ रहा है. मन्नू लाल जी खुशी से झूम उठे. पाँच वर्ष पूर्व बेटा नौकरी करने विदेश निकला था. वहीं शादी भी कर ली थी. अब एक साल की बिटिया भी है. शादी करने की बात बेटे ने बताई थी. पहले तो माँ–बाप जरा नाराज हुये थे, फिर यह सोच कर कि बेटे को विदेश में अकेले रहने में कितनी तकलीफ होती होगी, फिर बहू भी तो भारतीय ही थी, अपने-आप को मना ही लिया था.
मन्नू लाल जी और उनकी पत्नी दोनों ही साठ पार कर चुके थे. पेंशन में गुजारा आसानी से हो जाता था. बेटे ने कभी पैसे नहीं भेजे तो क्या हुआ, विदेश में उसके अपने खर्च भी तो बहुत होंगे. भविष्य-निधि के पैसों से बेटे की पढ़ाई पूरी की थी. नौकरी के समय भी कुछ पैसे खर्च हुये थे. फिर भी लगभग पचास हजार  बच ही गये थे. बैंक में फिक्स्ड कर दिया था.
मन्नू लाल जी ने अपनी धर्मपत्नी से कहा – बेटा बहू और बिटिया के साथ विदेश से आ रहे है. वहाँ कितनी सुविधा में रहते होंगे अपने घर में उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी. सोच रहा हूँ उनके लिये एक कमरा अच्छे से तैयार कर देते हैं. नये पलंग, नई चादरें ले लेते हैं और हाँ ! एक ए.सी. भी लगवा लेते हैं. उनकी धर्मपत्नी ने भी सहर्ष हामी भर दी.
बस कमरे को सजाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं. बैंक का फिक्स्ड डिपॉजिट गया, धर्मपत्नी की दो चूड़ियाँ भी गईं मगर यह सब बेटे के लिये ही तो किया है, किसी तरह की तकलीफ भला क्यों होती ? नियत तिथि भी आई. बेटा, बहू और उनकी बिटिया भी आये. द्वार पर ही आरती से उनका स्वागत हुआ. मन्नू लाल जी और उनकी धर्मपत्नी की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा.
दोनों ने बेटे-बहू को आशीर्वाद दिया. पोती को गोद में उठाते हुये मन्नूलाल जी चौंके, अरे ! बेटा तुम्हारा सामान कहाँ है ? बेटे ने कहा- पापा दर असल बात ये है कि हमने शहर मे होटल में एक कमरा बुक करा लिया था ताकि आपको और माँ को कोई तकलीफ न हो. सामान वहीं है. मन्नूलाल जी ने कुछ नहीं कहा और पोती को दुलारने लगी. उनकी धर्मपत्नी भी अधरों पर मुस्कान बिखेरते हुये बहू को साथ में लेकर सोफे पर बैठ गई. बैठक में टंगे पिंजरे का तोता मचल कर टें- टें करने लगा मानों आज उसने तकलीफ शब्द का  सही अर्थ पा लिया हो.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)