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Sunday, June 1, 2014

गज़ल............




आम पीर सहता क्यों, गुठलियाँ समझती हैं
संत - साधना   कैसी ,  वेदियाँ  समझती हैं 

लाल की जवानी का , जश्न  हो चुका काफी
खैर क्या मनाना अब, बकरियाँ  समझती हैं 

सास  आज स्वागत में, सौंपने लगी किस्मत
नव-वधू करेगी क्या , चाबियाँ  समझती हैं 

छुप-छुपा के आया है , पास अपनी दादी के
कौन खुश हुआ ज्यादा, कुल्फियाँ समझती हैं.

बात   संसकारों   की , फालतू  नहीं  होती
वक़्त  बीत  जाने  पे ,  पीढ़ियाँ समझती हैं 

कोठियाँ  उजालों में , क्यों उदास हैं इतनी
रात क्या हुआ होगा , खोलियाँ समझती हैं 

भीड़  है  हजारों  की ,  कौन-कौन सच्चा है
और  कौन  भाड़े  का , रैलियाँ समझती हैं 

ये  बिसात  के  खाने , चौंसठों  बराबर हैं
है  कहाँ  बसर करना, गोटियाँ समझती हैं 

देह से  न  काठी से , हो  सका  बड़ा कोई
हाथियों में दम कितना,चीटियाँ समझती हैं 

झूमते  शराबी  को , राह  कौन  दिखलाये
कौन पी रहा किसको,प्यालियाँ समझती हैं

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)