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Wednesday, October 16, 2013

कहाँ गये वे दिवस सुनहरे........



आल्हा-छंद

तू जिसको  घर कहता पगले , जिसको कहता है संसार
उसको  तो  मैं  पिंजरा मानूँ, जिसमें पंछी हैं कुल चार ||
नील गगन उन्मुक्त जहाँ हो, दसों दिशाओं का विस्तार
वही  कहाता  है  घर  आंगन , वही कहाता है परिवार ||

राम – लक्ष्मण  जैसे  भाई –भाई  में निश्छल था प्यार
दादा- दादी, ताऊ – ताई  का  मिलता था जहाँ दुलार ||
चाचा – चाची,बुआ बहनिया,माँ की ममता अपरम्पार
बेटे – बेटी  की  किलकारी  और  पिता थे   प्राणाधार ||

साझा चूल्हा नहीं जला औ , सुख की बहती थी रसधार
चाहे  सीमित थी  सुविधायें, घटा नहीं  सुख का भण्डार ||
परम्परा  पल्लवित  जहाँ  थी , पोषित  होते थे संस्कार
कहाँ गये  वे दिवस  सुनहरे, कहाँ  खो गये  वे घर-बार ||

अंडे  से  चूजे  ना  निकले , चले  घोंसला  अपना  छोड़
सुविधाओं की भाग-दौड़ में , रिश्तों से अपना मुँह मोड़ ||
नई  सभ्यता  पापन  आई , किया नहीं था  अभी प्रहार
परम्परा  के  जर्जर   पर्दे  ,  दरक  गई  घर की  दीवार ||

पश्चिम से यूँ चली आँधियाँ, दे बरगद के तन पर घाव
बूढ़ी आँखें  देख न  पाईं , जड़ से शाखा का अलगाव ||
नागफनी चहुँदिश उग आई ,  हुये बाग के सपने चूर
परम्परायें  सिसक  रही  हैं , संस्कार  भी  है मजबूर ||

तुम्हीं बताओ  कैसे समझूँ , पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल की हैं चढ़ी त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||
कटे हुये पर धुँधली आँखें, क्या देखूँ नभ का विस्तार
बंदीगृह – सी लगे  जिंदगी , आँसू - आँसू  पहरेदार ||

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

Tuesday, October 8, 2013

लघु कथा :



“सांत्वना”
अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं  उसे छुट्टियाँ  मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है.
बेटे को बता ही देता हूँ, कम से कम उसकी सांत्वना तो मुझे अंदर से मजबूत कर देगी. इतनी जल्दी मर थोड़े ही जाऊंगा. मैं ही अभी उसे आने के लिये  मना कर दूंगा. द्वारिका दास जी ने मोबाइल निकाला और बेटे को कॉल लगा ही लिया. हैलो पापा......हाँ बेटा मैं बोल रहा हूँ. कुशल-मंगल तो हो ना ? डॉक्टर साहब के पास से आ रहा हूँ, उन्होंने बताया है कि हार्ट का ऑपरेशन करना पड़ेगा. अभी तुम्हारी माँ को नहीं बताया है, बेचारी परेशान....बेटे ने बीच में ही बात काट कर कहा कितने पैसे भेज दूँ ?
द्वारिका दास जी के हाथ से मोबाइल फिसलकर गोद में आ गिरा.कानों में गूँज रही थी आवाज....कितने पैसे भेज दूँ......उनकी आँखें फिर से छत को ताकने लगीं. सूनी आँखों में  अब भी कुछ प्रश्न तैर रहे थे , मगर इस बार नमी भी साथ में थी.
 
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजयनगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

Tuesday, October 1, 2013

अंतराष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर........



तकलीफ  : लघु कथा
लगभग एक माह पूर्व बेटे का विदेश से फोन आया था कि वह मिलने आ रहा है. मन्नू लाल जी खुशी से झूम उठे. पाँच वर्ष पूर्व बेटा नौकरी करने विदेश निकला था. वहीं शादी भी कर ली थी. अब एक साल की बिटिया भी है. शादी करने की बात बेटे ने बताई थी. पहले तो माँ–बाप जरा नाराज हुये थे, फिर यह सोच कर कि बेटे को विदेश में अकेले रहने में कितनी तकलीफ होती होगी, फिर बहू भी तो भारतीय ही थी, अपने-आप को मना ही लिया था.
मन्नू लाल जी और उनकी पत्नी दोनों ही साठ पार कर चुके थे. पेंशन में गुजारा आसानी से हो जाता था. बेटे ने कभी पैसे नहीं भेजे तो क्या हुआ, विदेश में उसके अपने खर्च भी तो बहुत होंगे. भविष्य-निधि के पैसों से बेटे की पढ़ाई पूरी की थी. नौकरी के समय भी कुछ पैसे खर्च हुये थे. फिर भी लगभग पचास हजार  बच ही गये थे. बैंक में फिक्स्ड कर दिया था.
मन्नू लाल जी ने अपनी धर्मपत्नी से कहा – बेटा बहू और बिटिया के साथ विदेश से आ रहे है. वहाँ कितनी सुविधा में रहते होंगे अपने घर में उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी. सोच रहा हूँ उनके लिये एक कमरा अच्छे से तैयार कर देते हैं. नये पलंग, नई चादरें ले लेते हैं और हाँ ! एक ए.सी. भी लगवा लेते हैं. उनकी धर्मपत्नी ने भी सहर्ष हामी भर दी.
बस कमरे को सजाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं. बैंक का फिक्स्ड डिपॉजिट गया, धर्मपत्नी की दो चूड़ियाँ भी गईं मगर यह सब बेटे के लिये ही तो किया है, किसी तरह की तकलीफ भला क्यों होती ? नियत तिथि भी आई. बेटा, बहू और उनकी बिटिया भी आये. द्वार पर ही आरती से उनका स्वागत हुआ. मन्नू लाल जी और उनकी धर्मपत्नी की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा.
दोनों ने बेटे-बहू को आशीर्वाद दिया. पोती को गोद में उठाते हुये मन्नूलाल जी चौंके, अरे ! बेटा तुम्हारा सामान कहाँ है ? बेटे ने कहा- पापा दर असल बात ये है कि हमने शहर मे होटल में एक कमरा बुक करा लिया था ताकि आपको और माँ को कोई तकलीफ न हो. सामान वहीं है. मन्नूलाल जी ने कुछ नहीं कहा और पोती को दुलारने लगी. उनकी धर्मपत्नी भी अधरों पर मुस्कान बिखेरते हुये बहू को साथ में लेकर सोफे पर बैठ गई. बैठक में टंगे पिंजरे का तोता मचल कर टें- टें करने लगा मानों आज उसने तकलीफ शब्द का  सही अर्थ पा लिया हो. 

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजयनगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)