आल्हा-छंद
तू जिसको
घर कहता पगले , जिसको
कहता है संसार
उसको
तो मैं पिंजरा मानूँ, जिसमें पंछी हैं कुल चार ||
नील गगन उन्मुक्त जहाँ हो, दसों दिशाओं का विस्तार
वही
कहाता है घर
आंगन , वही
कहाता है परिवार ||
राम – लक्ष्मण
जैसे भाई –भाई में निश्छल था प्यार
दादा- दादी, ताऊ – ताई
का मिलता था जहाँ दुलार ||
चाचा – चाची,बुआ बहनिया,माँ की ममता
अपरम्पार
बेटे – बेटी
की किलकारी और
पिता थे प्राणाधार ||
साझा चूल्हा नहीं जला औ’ , सुख की
बहती थी रसधार
चाहे सीमित
थी सुविधायें, घटा नहीं सुख का भण्डार ||
परम्परा
पल्लवित जहाँ थी , पोषित
होते थे संस्कार
कहाँ गये
वे दिवस सुनहरे, कहाँ खो गये
वे घर-बार ||
अंडे
से चूजे ना
निकले ,
चले घोंसला अपना
छोड़
सुविधाओं की भाग-दौड़ में , रिश्तों से अपना मुँह मोड़ ||
नई सभ्यता पापन आई , किया नहीं था
अभी प्रहार
परम्परा के जर्जर
पर्दे
, दरक गई घर
की दीवार ||
पश्चिम से यूँ चली आँधियाँ, दे बरगद के तन पर घाव
बूढ़ी आँखें
देख न पाईं , जड़ से शाखा का अलगाव ||
नागफनी चहुँदिश उग आई , हुये बाग के सपने चूर
परम्परायें
सिसक रही हैं , संस्कार
भी है मजबूर ||
तुम्हीं बताओ
कैसे समझूँ ,
पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल की हैं चढ़ी त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||
कटे हुये पर धुँधली आँखें, क्या देखूँ नभ का विस्तार
बंदीगृह – सी लगे जिंदगी , आँसू - आँसू
पहरेदार ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)