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Sunday, July 1, 2012

भीड़ बढ़ी है बाजारों में


पंचों  की  बैठक  बुलवा कर , क्यों शामत  बुलवाई है
जिसके  दिल  में  चोर  छुपा  हो  ,  देता वही सफाई है |

ना  समझी है  दुनियादारी , जिसका दिल बच्चे जैसा
वही    कैद    होता   जेलों  में   ,   घूम   रहा  दंगाई   है  |

भीड़  बढ़ी  है  बाजारों  में ,  कितने   चाँदी   काट  रहे
समझ  नहीं  मैं  पाया  यारों  ,  कहाँ  छुपी  महँगाई  है  |

अदल बदल कर पहन रहा है , दो  कुरते पखवाड़े भर
इक दिन हँस कर बोला मुझसे, महँगी बहुत धुलाई है  |

हंसों  से  कछुवों  ने  गुपचुप  कुछ  सौदे  हैं  कर डाले
पूछे   कौन   समंदर   से   तुझमें   कितनी  गहराई  है  |.

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)

(ओपन बुक्स ऑन लाइन के तरही मुशायरा में शामिल मेरी गज़ल)