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Thursday, June 28, 2012

फिफ्टी-फिफ्टी हास्य गज़ल.................


कच्ची रोटी भी प्रेमिका की भली लगती है
बीबी अच्छी भी खिलाये तो जली लगती है.

बीबी हँस दे तो कलेजा ही दहल जाता है
प्रेयसी रूठी हुई  भी तो  भली लगती है .

नये नये में बहु कितनी भली लगती है
फिर ससुर सास को वो बाहुबली लगती है.

कली अनार की लगती थी ब्याह से पहले
अब मैं कीड़ा हूँ और वो छिपकली लगती है.

फिर चुनी जायेगी दीवार में पहले की तरह
ये मोहब्बत सदा अनारकली लगती है.

इस शहर के सभी आशिक हैं परेशान बहुत
फिर कहीं तेरी मेरी बात चली लगती है.

रेल की बोगी को बैलों से खींच कर लालू
बोले लोकल भी अब गीतांजलि लगती है.

जिंस और टॉप ,कटे बाल, ऊँची सैंडल में
छोरी हमको तो फकत मसक्कली लगती है.

फिर युधिष्ठिर नजर आया है जुआखाने में
किसी शकुनि ने नई चाल चली लगती है.

सूर रसखान घनानंद औ केशव तुलसी
गोद में कविता इन सबकी, पली लगती है.

एक ही तुलसी जनम लेता है इस दुनियाँ में
सबकी किस्मत में कहाँ रत्नावली लगती है.


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)

Sunday, June 24, 2012

आदि शक्ति उवाच (छंद)




(चित्र ओबीओ से साभार)
 
नहीं  बालिका  जान  मुझे  तू   ,  मैं  हूँ  माता  का अवतार |
सात   समुंदर   हैं   आँखों   में  ,  मेरी   मुट्ठी   में   संसार ||
मैंने   तुझको  जन्म  दिया  है  ,  बहुत  लुटाये   हैं  उपहार |
वन  उपवन  फल  सुमन  सुवासित, निर्मल नीर नदी की धार ||

स्वाद  भरे  अन  तिलहन  दलहन ,  सूखे  मेवों  का  भंडार |
हरी - भरी  सब्जी  - तरकारी ,  जिनमें   उर्जा   भरी  अपार ||
प्राणदायिनी   शुद्ध   हवा  से   ,   बाँधे  हैं  श्वाँसों  के  तार |
तन - तम्बूरा  तब  ही  तेरा  ,  करता  मधुर-  मधुर  झंकार ||

हाथी  घोड़े  ऊँट   दिये  हैं   ,  सदियों  से   तू  हुआ  सवार  |
मातृरूप  में  गोधन  पाया  ,   जिसकी  महिमा  अपरम्पार ||
वन - औषधि की कमी नहीं है ,  अगर कभी तू हो बीमार |
सारे  साधन  पास  तिहारे  , कर  लेना  अपना उपचार ||

सूर्य  चंद्र  नक्षत्र  धरा  सब  ,  तुझसे करते लाड़-दुलार |
बादल - बिजली धूप - छाँव ने, तुझ पर खूब लुटाया प्यार ||
गर्मी  वर्षा  और  शीत  ने , दी तुझको उप-ऋतुयें चार |
शरद  शिशिर  हेमंत  साथ में , तूने  पाई  बसंत-बहार ||

सतयुग  त्रेता  द्वापर तक थे , तेरे कितने उच्च विचार |
कलियुग में क्यों फिर गई बुद्धि , आतुर करने को संहार ||
नदियों को  दूषित  कर डाला , कचरा  मैला डाल हजार |
इस पर भी मन नहीं भरा तो,जल स्त्रोतों पर किया प्रहार ||

जहर  मिला कर  खाद बनाई , बंजर हुये खेत और खार |
अपने  हाथों  बंद  किये  हैं , अनपूर्णा  के  सारे  द्वार ||
धूल - धुँआ सँग गैस विषैली , घुली  हवा  में  है भरमार |
कैसे  भला  साँस  ले प्राणी  , शुद्ध  हवा  ही  प्राणाधार ||

वन काटे  भू - टुकड़े छाँटे , करता  धरती  का  व्यापार |
भूमिहीन  अपनों  को  करता  ,  तेरा  कैसे  हो  उद्धार ||
दूध  पिलाया  जिन गायों ने , उनकी गरदन चली कटार |
रिश्ते - नाते  भूल  गई  सब , तेरे  हाथों  की  तलवार ||

वन्य-जीव की नस्ल मिटा दी, खुद को समझ रहा अवतार |
मूक-जीव  की  आहें  कल को ,  राख करेंगी बन अंगार ||
मौसम चलता  था अनुशासित, उस पर भी कर बैठा वार |
ऋतुयें  सारी  बाँझ हो  गईं ,   रोती  हैं  बेबस  लाचार ||

हत्या की  कन्या - भ्रूणों की ,बेटी  पर  क्यों  अत्याचार |
अहंकार  के  मद  में  भूला , बिन  बेटी  कैसा  परिवार ||
अभी  वक़्त  है, बदल इरादे , कर अपनी  गलती स्वीकार |
पंच-तत्व से  क्षमा मांग ले , कर  नव-जीवन का  श्रृंगार ||

वरना  पीढ़ी  दर  पीढ़ी  तू  , कोसा  जायेगा  हर  बार |
अर्पण - तर्पण कौन  करेगा , नहीं  बचेगा  जब  संसार ||
आज  तुझे  समझाने  आई  ,  करके  सात समुंदर पार |
फिर मत कहना ना समझाया , बस  इतने  मेरे उद्गार ||

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (म.प्र.)

[ओबीओ द्वारा आयोजित " चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता " में सम्मिलित रचना]
   

Friday, June 15, 2012

पुत्र अभिषेक (बिट्टू) को जन्म दिवस की शुभकामनायें



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तुम्हें बिट्टू मेरी उमर लग जाय............

है क्या पास मेरे दुआ के सिवाय
तुम्हें बिट्टू मेरी उमर लग जाय............

खुशी सारी  पाना , सदा  मुस्कुराना
मोहब्बत के नगमे सदा गुनगुनाना 
सफलता कदम चूमे हरदम तुम्हारे
जमाने में सबके, रहो बन के प्यारे

जो ख्वाब चाहो वो पूरा हो जाय
तुम्हें बिट्टू मेरी उमर लग जाय.............


सुर और संगीत तुमको सुहाया
सदा वीणापाणि की तुम पर हो छाया
रहे कोई मौसम,हो साँसों में सरगम
जग में सफलता का लहराओ परचम

वीणा सुखों की झंकृत हो जाय
तुम्हें बिट्टू मेरी उमर लग जाय............


बने हो अभियंता सृजन अच्छे करना
बहाना जमाने में खुशियों का झरना
माता पिता का करो नाम ऊँचा
करे नाज तुम पर ये भारत समूचा

सुखों से ये जीवन सदा जगमगाय
तुम्हें बिट्टू मेरी उमर लग जाय............


अरुण कुमार निगम








Wednesday, June 6, 2012

विवाह की तीसवीं वर्षगाँठ पर कुछ कुण्डलिया


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वो बैठे छत्तीसगढ़ और हम  मध्यप्रदेश
एस.एम.एस.से  भेजते  दोनों ही संदेश
दोनों  ही  संदेश , नौकरी  बैरन  भारी
मजबूरी  है  इधर, उधर  भी  है  लाचारी
साहब  से    छुट्टी   मांगी   वो  मूछें   ऐंठे
शादी की है सालगिरह,गुमसुम वो बैठे.

 भाभी  जी  के  संग गया  ,  मार्केट अभिषेक
दोनों  लेकर आ  गये  सुंदर सा   एक  केक
सुंदर सा एक केक ,देख कर उसका डब्बा
अभिषेक   की   मम्मी   बोली    हाये   रब्बा
सालगिरह  का  केक  अकेली  कैसे  काटूँ
लगा फोन पापा को, थोड़ा सुख-दुख बाटूँ.

मैंने  बोला  फोन  पर  ,  युग  है   हाई  टेक
श्रीमती जी ! काटिये  , फौरन  सुंदर  केक
फौरन सुंदर केक , ऑन लाइन हैं  हम  भी
चिंता तनिक न कीजे , कि फाइन हैं हम भी
आई   बहू  बनारस  से  , सेलीब्रेट  है  करने
केक काट कर जाओ, बहू के संग विचरने.

जा रे, जा रे  ब्लॉग तू  , दो सौ  उन्नीस मील
दिशा पकड़ वायव्य की , लगे जहाँ गुडफील
लगे  जहाँ  गुडफील  ,  वहीं  पर  दुर्ग है  मेरा
माँ  , बीबी  , बच्चों   का  ,   मेरे   वहीं  बसेरा
जाकर   मेरी   मजबूरी  ,  सबको   बतलाना
सालगिरह  तू  ब्याह  की  मेरी वहीं मनाना.

भूला  हूँ  मैं  व्याकरण  , लघु - गुरु को छोड़
आता  है  ऐसा   कभी  , हर जीवन  में  मोड़
हर जीवन  में  मोड़ , बने जीवन ही छलिया
फिर कैसा दोहा – रोला , कैसी कुण्डलिया
दु:ख की बांधे डोर  ,  खुशी  झूले  है  झूला
मित्रों करना माफ,अरुण व्याकरण है भूला.

अरुण कुमार निगम
विजय नगर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)

Sunday, June 3, 2012

सरल सहृदय रविकर जी का सानिध्य





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विगत दिनों छोटे बेटे बिट्टू की काउंसिलिंग के लिये धनबाद जाने का सुखद संजोग बना. बिट्टू को दुर्गसे जबलपुर बुला लिया था. शक्ति पुंज से आरक्षण भी करवा लिया.  हम निर्धारित समय पर जबलपुर रेल्वे स्टेशन पहुँचे. जबलपुर से शुरू होने वाली शक्तिपुंज रात को साढ़े बारह बजे छूटती है. ट्रेन छूटने का समय रात्रि सवा दो बजे  डिस्प्ले हो रहा था. लेकिन ट्रेन रात के साढ़े तीन बजे छूटी. आधी रात को चार घंटे का समय प्लेटफार्म पर बिताना बड़ा ही कष्टदायक होता है किंतु रेल्वे विभाग को इससे क्या ? ये तो अच्छा हुआ कि हमारी बोगी साफ सुथरी और मेंटेन्ड थी. लगभग बाईस घंटे के बाद रात को डेढ़ बजे हम धनबाद पहुँचे. रविकर जी से मोबाईल पर सम्पर्क किया, वे दस मिनट बाद ही अपनी कार लेकर आ गये. रविकर जी प्रतीक्षा में जाग ही रहे थे. उनके घर पहुँचने के बाद भाभी जी ने गरमागरम स्वादिष्ट भोजन खिलाया. खाना खाने के बाद हम सो गये.

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दूसरे दिन सुबह रविकर जी के आंगन में बैठ कर सुंदर प्राकृतिक वातावरण में नाश्ते के साथ चाय की चुस्कियाँ लीं. रविकर जी का क्वार्टर आई.एस.एम. कम्पाउंड के अंतिम छोर पर है. ऐसा लग रहा था मानों हम किसी अभ्यारण्य में बैठे हों. चारों ओर हरे भरे वृक्ष, उन्मुक्त पक्षियों के चहचहाने की मधुर आवाज वातावरण में रस घोल रही थी. रविकर जी के आंगन में आम, जामुन, सहजन के बड़े बड़े पेड़ों के अलावा बहुत सारे नन्हें नन्हें पौधे सुबह की शीतल पवन के संग मस्ती में झूम रहे थे. आम की एक मोटी सी शाखा से दो रस्सियाँ लटक रही थीं जो शायद कभी झूले के साथ पेंग भरा करती होंगी.रस्सियों की उदासी बता रहीं थी कि जब बच्चे बड़े होने के बाद कहीं पढ़ने या नौकरी करने के लिये बाहर चले जाते हैं तब माँ बाप की तरह आंगन भी कितना सूनापन महसूस करता है.
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हम तैयार होकर आई.एस.एम. कम्पाउंड में ही घूमने निकले. बहुतसे विभागों की बिल्डिंग देखी. ब्रिटिश जमाने के लाल रंग के भवन हरियाली के बीच बहुत ही सुंदर दिखाई देते हैं. कैम्पस में सुंदर साफ सुथरी पक्की सड़कें और चारों ओर हरियाली ही हरियाली.कहीं पीले गुलमोहर के के छायादार वृक्ष,शांत वातावरण में दूर तक गूँजती कोयल की कूक और कई तरह के पक्षियों की चहचहाहट  मन को मोह रही थी.  हमने  रविकर जी की लैब भी देखी.  वह की बोर्ड देखा जिस पर रविकर जी की उंगलियाँ न जाने कब से नर्तन कर रही हैं और उनके हृदय से झूम कर निकले छंदों और कविताओं को अंतर्जाल के जरिये हम तक पहुँचाती हैं. इसी की बोर्ड से न जाने कितनी बार चर्चा-मंच सजा है , कितने दोहे, कितनी कुंडलिया,कितनी कवितायें और नजाने कितनी ही सारगर्भित टिप्पणियाँ देश-विदेश में  कितने ही हिंदी प्रेमियों तक पहुँच रही हैं. साढ़े ग्यारह बजे हम रविकर जी के क्वाटर में पुन: लौट आये.भोजन करने के बाद कई तरह की साहित्यिक चर्चायें हुई. 
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दूसरे दिन की सुबह फिर से रविकर जी के मनोरम आंगन में चाय और नाश्ते का आनंद लेने के बाद हम उनके लैब गये. वहाँ नेट में भिड़े रहे.मेरे धनबाद पहुँचने के कारण रविकर जी नेट पर नहीं बैठ पा रहे थे. वहीं बैठ कर हम दोनों ने ओपन बुक्स ऑन लाइन द्वारा आयोजित चित्र-काव्य प्रतियोगिता में अपने छंद पोस्ट किये , कुछ अन्यरचनाकारों के छंदों पर अपनी प्रतिक्रियायें प्रकट की और बहुतसे ब्लॉग पढ़ते रहे. दोपहर को भोजन करने के उपरांत कई ब्लॉगर मित्रों और उनकी रचनाओं के बारे में चर्चा करते रहे. 

रविकर जी बहुत सरल और सहृदय इंसान हैं  वैसी ही सरल और उदार हृदय की भाभी जी हैं. तीन दिनों तक साथ रहकर मैंने जाना कि रविकर जी खाने के बहुत ही शौकीन हैं तो भाभी जी को खिलाने का बड़ा शौक है. मेरे और बिट्टू के ये चार दिन कुछ न कुछ खाते हुये ही बीते हैं.  यहाँ हमने स्वादिष्ट भोजन के साथ ही कुछ परम्परागत  व्यंजनों का आनंद भी लिया. बेल का शरबत हमने पहली पिया. यह ग्रीष्म ऋतु के लिये बड़ा ही लाभदायक होता है. फरा के साथ बादाम और लहसुन की खट्टी चटनी भी हमारे लिये नया व्यंजन थी. मूंग की दाल के दही बड़े जैसा एक व्यंजन ( रात को भिगोई हुई मूंग की दाल को पीस कर चौसेला /चीला बनाया जाता है, उसके  छोटे-छोटे टुकड़े करके दही में डुबा कर रखा जाता है. फिर नमक और मिर्च डाल कर खाया जाता है.) घर के आम का स्वादिष्ट अचार ,सत्तू की पूड़ियाँ और घर में बनाये गये  शुद्ध खोवे के पेड़े हम कभी भी भूल नहीं पायेंगे.

 तीसरे दिन शाम को चार बजे रविकरजी ने हमें धनबाद रेल्वे स्टेशन छोड़ दिया. भाभीजी ने रास्ते के लिये सत्तू की पूड़ियाँ, शीशी भर आम का अचार और शुद्ध खोवे के पेड़े पैक कर दिये. हम ब्लैक डायमंड एक्सप्रेस द्वारा धनबाद से आसनसोल के लिये रवाना हुये, जहाँ से साउथ बिहार एक्सप्रेस में बैठ कर बिट्टू के साथ दुर्ग आ गये. दुर्ग में भी बिट्टू की मम्मी तरह तरह के स्वादिष्ट पारम्परिक व्यंजन बना बना कर खिलाती रही फिर कुछ दिनों तक वहीं विश्राम किया. इसी कारण मैं काफी दिनों तक ब्लॉग जगत से दूर रहा. अब पुन: जबलपुर आ गया हूँ. धनबाद में रविकर जी के सानिध्य में बीते हुये मधुर पल  मेरे जीवन में सदा अविस्मरणीय रहेंगे. 
यह भी याद रहेगा कि रविकर जी के साथ बैठ कर ओबीओ की जिस चित्र-काव्य प्रतियोगिता में हमने अपने छंद प्रेषित किये थे उसके तीन विजेताओं में दो विजेता रविकर जी और मैं रहे. 
निर्णय  :
‘चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -१४' का निर्णय 

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (मध्य प्रदेश)