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Thursday, September 29, 2011

मंत्र कर्मों का


मिट रहा है वह तो केवल रूप है
लेख कर्मों का कभी मिटता नहीं.

निज सुखों को वार, जग से प्यार कर
यश कमा, यह धन कभी लुटता नहीं.

मत समझ अपना-पराया, बाँट दे
सुख लुटाने से कभी घटता नहीं.

स्वार्थ-मद में मत कभी हुंकार भर
गर्जना से आसमां फटता नहीं.

तंत्र तन का एक दिन खो जायेगा
मंत्र कर्मों का कभी कटता नहीं. 

(मेरे छत्तीसगढ़ी ब्लॉग मितानी-गोठ में नव-रात्रि के अवसर पर दुर्गा जी के दोहों की श्रृंखला पोस्ट की जा रही है,मेरा विश्वास है कि हमारी आंचलिक भाषा छतीसगढ़ी को हिंदी के बहुत करीब पायेंगे. कृपया अवश्य ही पधारें)
mitanigoth

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Monday, September 26, 2011

आकर्षण के भ्रम में

यौवन का अभिमान छोड़कर
जिस दिन मुस्काएगा
भोला-भाला रूप ये तेरा
उस दिन भा जाएगा.

कितने दिन तक यौवन देगा
साथ ! कभी सोचा है ?
शीशे का दर्पण भी कल को
तुझसे कतराएगा.

प्रेम किसे कहते हैं , तूने
जाना अभी कहाँ है
अगर अभी ना समझ सका
तो बाद में पछताएगा.

आकर्षण को प्रेम समझ कर
ओ इतराने वाले
आकर्षण के भ्रम में तेरा
सब कुछ खो जाएगा.


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Saturday, September 24, 2011

उपमेय बने उपमान –


अल्हड़ लहरों में तेरी चंचलता देखी
गंगाजल में तेरी ही पावनता देखी
जो श्रद्धा तेरी पलकों में झाँकी मैंने
हर मंदिर में श्रद्धा की निर्मलता देखी.

जब भी तेरे केशों को सहला देता हूँ
मानों अपने ही मन को बहला देता हूँ
तेरे अधरों को छूने के बाद ही मैंने
कलियों के अंतस्थल में कोमलता देखी.

तेरी धड़कन का जब भी आभास किया है
सरगम पर कुछ रचने का प्रयास किया है
तेरी श्वासों की महकी सी उष्मा पाकर
अरुण रश्मियों में मैंने शीतलता देखी.

मन कहता है तुम ऐसे ही पास रहोगी
छेड़ोगी ऐसे ही और मृदुहास करोगी
भाव बाँच कर तेरे कजरारे नयनों के
कवि-हृदय में ऐसी ही भावुकता देखी.

छलक-छलक जाती हैं मेरी ये पलकें
तुझमें देखी है जबसे अतीत की झलकें
तेरे ज्योतिर्मय मन में जब से डूबा हूँ
तब से हर प्रात: में उज्जवलता देखी.

अपने जीवन से मैं कब का हार चुका था
जीवन की आशाओं को मैं वार चुका था
प्रेमामृत का जब से तूने दान दिया है
अपने ही मृत जीवन में उत्सुकता देखी.

कुंठाओं की देहरी से मैं भाग चुका हूँ
भोर हुई है जीवन की मैं जाग चुका हूँ
अपने को बड़भागी मैंने मान लिया है
तेरे दो नयनों में मैंने ममता देखी.

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़.
(रचना वर्ष- 1980)

Friday, September 23, 2011

कौन तारा झील से टकरा गया ....


बावरा मन गीत कोई गा गया
सीप से मोती छलक कर आ गया
और हँसने को घटायें छा गई
तुमको मेरा दर्द कोई भा गया............

दर्द से लिपटा हुआ संगीत था
या मेरी ही सिसकियों का शोर था
एक झोंका मुस्कुराता आ गया
और चुपके घाव को सहला गया............

कौन आयेगा विजन परदेस में
मौन पलकें क्यों प्रतीक्षा में बिछी
क्यों लहर में झूलता है चंद्रमा ?
कौन तारा झील से टकरा गया  ?????

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़.

(रचना वर्ष- 1979)

Wednesday, September 21, 2011

मैं क्या करता !!!


मैं तुम्हें अंक में लेने को लालायित था
इतने में आ गई मृत्यु, मैं क्या करता !!!
तुम रुष्ठ हुई हो नयनों के अश्रु लखकर
नयन-कटोरे रीते थे , मैं क्या भरता !!!

तुम रचती रही महावर अपने पाँवों में
हाथों में मेंहदी रचे बिना तुम क्या आती
तुमको था ‘सजना’ अतिप्रिय “सजना” से
दर्पण से कुछ कहे बिना तुम क्या आती.

कहता ही रह गया तुम्हें मैं जीवन भर
मन की सुंदरता ही सच्ची सुंदरता !!!

गहनों और परिधानों में  इतना खोई
उमर गई कब फिसल , तुम्हें न भान हुआ
मैं सज-धज तैयार हुआ जब जाने को
तब जाकर तुमको जीवन का ज्ञान हुआ.

और प्रतीक्षा में मैंने जीवन खोया
तुम जो रहती निकट भला मैं क्या मरता !!!

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़.

(रचना वर्ष- 1977)