रजकण हूँ आंगन में बिखरा रहने दो
नयनों में तुम नहीं बसाना – पीड़ा होगी.
क्रंदन हूँ कोयल की पंचम तानो का
अधरों पर तुम मुझे न लाना – पीड़ा होगी.
कीचड़ से बच कर चलना ही श्रेयस्कर है
वरना आँचल पर कलंक लग जायेगा
देहरी के बाहर पग धरना उचित नहीं है
निर्लज कंटक हाय ! अंक लग जायेगा.
शुभ-चिंतक हूँ दर्पण में तुम उम्र बाँच लो
मत अब कोई कदम बढ़ाना – पीड़ा होगी..............
शहनाई की मधुर रागिनी , रचो महावर
और हथेली पर मेंहंदी की रांगोली दो
दीवाली कर लो तुम अपने वर्तमान को
और अतीत की स्मृतियों को अब होली दो.
अंतिम आशीर्वाद लिये जब मैं आऊंगा
मत घूँघट से पलक उठाना – पीड़ा होगी..................
चूड़ी खनका कर अपने पैंजन झनका कर
कहना – ‘ कवि मैं गीत तुम्हारे लौटाती हूँ ’
इस चकोर के आगे मत तुम नीर बहाना
बरना हर इक बूँद कहेगी –मैं स्वाती हूँ.
और सुनो तुम मुक्त-भाव से हँसती रहना
होंठ काट कर मत मुस्काना – पीड़ा होगी..................
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर
दुर्ग (छत्तीसगढ़)