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Tuesday, June 28, 2011

अरुण का परिचय

(अरुण = सूर्य)

“ मैं अरुण हूँ “
इतना परिचय तुम्हें पर्याप्त न था
और जब तुम पूछ बैठे
हो मेरा विस्तार तो
सुन लो कि मैं स्वयं ही
जलता रहा हूँ उम्र भर.

हर सुबह ऊषा सिंदूरी
ओढ़ चूनर अपने द्वारे
कलरवी शहनाइयों से
नित रिझाती है मुझे.

रश्मि भी श्रृंगार करके
मांग अपनी जगमगाये
पालती है भ्रम – मैं ही
संगिनी हूँ इस अरुण की.

और प्रकृति भी बेचारी
इसी भ्रम में फँस गई है
इसलिये मेरे उदित
होते ही वह श्रृंगार करती.
कुमुदिनी भी बंद पलकें
खोल कर यूँ देखती है
जिस तरह इक प्रेयसी
प्रियतम के आने पर मधुर
मुस्कान लेकर देखती है.

सूर्यमुखी भी एकटक
मेरी तरफ क्यूँ देखती है
झील में स्नान करके
पवन इठलाकर समूचे
विश्व को बतलाती फिरती
अरुण मेरा आ गया है.

किंतु मैं आसक्त कैसे
हो सकूँ इन सजनियों पर
हर किसी से मेरी दूरी
गगन से ऊँची हुई है.

शून्य है सुनसान है मेरा बसेरा
देश मेरा शून्य है
परिवेश मेरा अग्नि है.
एक मरुथल भी नहीं है पास मेरे.

दहकना मेरी गति है
मुस्कुराना धर्म मेरा
जल के सबको रोशनी दूँ
बस यही है कर्म मेरा.

ह्रदय मुझमें है कहाँ जो
प्रेम अम्रृत भर सकूँ
कोई अपना भी नहीं कि
बात उससे कर सकूँ.
हाथ मेरे हैं नहीं तो
हस्त रेखा हो कहाँ
कंठ मेरा है नहीं कि
गीत गाऊँ प्यार के.

हाँ ! किसी दिन भूल से
मुझ पर किसी की याद का
साया पड़े तो जान लेना
मैं पराया हो चुका हूँ.

यूँ तो सारा जग भ्रमित है
जो मेरे पावन बदन पर
देख कर यादों का साया
ग्रहण का है दोष देता.

प्रेम की उस पवित्रता को
इक अपावन दोष कह कर
जग कलंकित कर रहा है.
किंतु फिर भी मैं कभी
अपनी प्रिया के नाम को
भूल से बतला न दूँ 
बस इसी एक बात पर
मैं मौन हूँ खामोश हूँ मैं
और जलता हूँ किसी की
याद में आठों पहर.

हाँ ! तुम्हें अब प्यार कैसे
कर सकूँ तुम ही कहो
मैं किसी का हो चुका हो हूँ
तुम न मेरे स्वप्न देखो
बस अपरिचित की तरह
दूरियाँ मुझसे रखो.

प्यार मेरा खो गया है
इस असीम आकाश में
इसलिये  तन को जला कर
रोशनी में मैं निरंतर
ढूँढता हूँ मीत अपना
बस इसी कोशिश में मैं
जलता रहूंगा उम्र भर.

-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Friday, June 24, 2011

प्यार में हिसाब नहीं जानता.....

हुश्न और शवाब नहीं जानता
प्यार में हिसाब नहीं जानता.

छू लिये थे लब किसी के एक दिन
तब से मैं गुलाब नहीं जानता.

ढाई आखरों में उलझा इस तरह
धर्म की किताब नहीं जानता.

प्यार के नशे में चूर – चूर हूँ
चीज क्या शराब नहीं जानता.

हर सवाल पर न “क्यों” कहा करो
“क्यों” का मैं जवाब नहीं जानता .

-अरुण कुमार निगम
 आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Tuesday, June 21, 2011

मैं केवल उच्चारण हूँ......

मैं क्या था ?
जो हूँ तेरे कारण हूँ.
भाषा है तू
मैं केवल उच्चारण हूँ.

भाव दिये तूने मुझको जब
कवि बना मैं
किरणों का आलोक दिया तब
रवि बना मैं

श्रेष्ठ बनाया तूने
मैं साधारण हूँ.
भाषा है तू
मैं केवल उच्चारण हूँ.

निर्बल था मैं तूने मुझको
सबल बनाया
कीचड़ में पलने वाले को
कमल बनाया

तेरे उत्कट प्रेम का मैं
उदाहरण हूँ.
भाषा है तू
मैं केवल उच्चारण हूँ.

-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)
(रचना सन्‌ 1983)

Sunday, June 12, 2011

गीत : तुम्हीं प्रेरणा कवि ह्रदय की


तुम्हीं प्रेरणा कवि ह्रदय की
कविता का अधिकार न छीनो
तुम पर ही अब गीत रचूंगा
मुझसे यह अधिकार न छीनो.

सावन बनकर छा जाओगे
ह्रदय पपीहा नृत्य करेगा
घुंघरू तो टकरायेंगे ही
तुम इनकी झंकार न छीनो.

जब ऋतुराज विहँस आयेगा
कलम-कोकिला कूक उठेगी
वरना होगा केवल पतझर
तुम इनका अभिसार न छीनो.

बिना छिद्र बाँसुरिया कैसी
बिना साधना कैसी सरगम
बिना प्रेरणा के कवि कैसा
वीणा से तुम तार न छीनो.

कहीं भावना की आँधी से
सौगंधों का बाँध न टूटे
अरी बावरी ! हठ छोड़ो तुम
जीवन का आधार न छीनो.

कठिन साधना के प्रतिफल में
तुमसे निश्छल प्यार मिला है
जीवन छीनो , धड़कन छीनो
तुम अपना उपहार न छीनो.

जलने दो तुम “अरुण – हृदय” को
तब ही जग आलोकित होगा
आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो. 

-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)


(रचना सन्‌ 1977)

Monday, June 6, 2011

विवाह की 29 वीं वर्षगाँठ


अरुण कुमार निगम एवं श्रीमती सपना निगम (विवाह पूर्व मंजु रामटेके) 
विवाह की 29 वीं वर्षगाँठ
मं त्र मुग्ध हूँ मौन अकिंचित , प्यार करो तो जानूँ
जु गनू की शीतल ज्वाला , स्वीकार करो तो जानूँ.
रा स नहीं बनवास नहीं , उन्मुक्त प्रेम हूँ प्रियतम
न की व्याकुलता से तुम श्रृंगार करो तो जानूँ
टे सू नहीं , दहकता मन है ,मन के मीत सुनो तुम
के श घटा की इस पर तुम , बौछार करो तो जानूँ

गर सुखों से प्यार तुम्हें है , साथ ना चल पाओगे
रू प – महल को मेरे कारण , वार करो तो जानूँ
हीं चाह जीवन-साथी की , तुम जीवन बन जाओ
नि र्धन के उर में रह कर ,अभिसार करो तो जानूँ
गन अभागा ऐसा मेरा ,हर क्षण जहाँ अमावस
नमीता ! यह मावस अंगीकार करो तो जानूँ.

( सन 1982 में लिखी गई कविता )

Sunday, June 5, 2011

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष - "बसंत"


                               -अरुण कुमार निगम

कविता में ,गीत मेंबसंत     नजर आता है.
अब तो बसंत का बस
 ,अंत नजर आता है.

जंगल का नाश हुआ
,    गायब पलाश हुआ
सेमल ने दम तोडा
,   आम भी निराश  हुआ.
चोट
लगी वृक्षों को,     घायल आकाश हुआ.
बादल
भी रो न सका     ,  इतना हताश हुआ 
.
 आधुनिक शहर दिक्-दिगंत नजर आता है.
अब तो बसंत का बस
 , अंत नजर आता है.

सोचो तो
   गए साल   , कैसा  अंजाम  हुआ
बाँझ रही अमराई
  ,  पैदा    न   आम  हुआ.
प्याज ने रुलाया
   तो ऐतिहासिक दाम हुआ
दौलत की लालच
  में  सरसों बदनाम हुआ.

मौसम
   महाजन - -सामंत नजर आता है
अब तो बसंत का बस
,अंत नजर आता है.

कोयल न कुहुकेगी
,   बुलबुल न चहकेगी
पायल   न
  झनकेगी ,    चूड़ी न खनकेगी
बिंदिया
     चमकेगी,     सांसें    न महकेगी
होली
       दहकेगी,          गोरी न बहकेगी.

प्रश्न
  भविष्य का,    ज्वलंत नजर आता है
अब तो बसंत का बस
, अंत नजर आता है.