Followers

Saturday, March 19, 2011

तब फागुन ,फागुन लगता था


चौपाल फाग से सजते थे
नित ढोल -नंगाड़े बजते थे
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.
  
गाँव में बरगद-- पीपल था
और आस-पास में जंगल था
मेड़ों पर खिलता था टेसू
और पगडण्डी में सेमल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.


अंतस में प्रेम की चिंगारी
हाथों में बाँस की पिचकारी
थे पिचकारी में रंग भरे
और रंगों में गंगा-जल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.

हर टोली अपनी मस्ती में
थी धूम मचाती बस्ती में
न झगड़ा था,न झंझट थी
और न आपस में दंगल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.

कोई देवर संग,कोई साली संग
कोई अपनी घरवाली संग
थे रंग खेलते नेह भरे
हर रिश्ता कितना उज्जवल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.

हर घर खुशबू पकवानों की
दावत होती मेहमानों की
तब प्रेम-रंग से रँगा हुआ
जीवन का मानो हर पल था.
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.

अब प्रेम कहाँ,अब रंग कहाँ
वह निश्छल,निर्मल संग कहाँ
इस युग की होली "आया - सी "
वह युग ममता का आँचल था .
तब फागुन ,फागुन लगता था
यह मौसम कितना चंचल था.

-अरुण कुमार निगम

Wednesday, March 16, 2011

किस मन से श्रृंगार करूँ.....?

                                             -अरुण कुमार निगम

ओ बसंत ! तुम बतलाओ,   कैसे आदर-सत्कार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?


फिर पवन - बसंती झूमेगी,
हर कलि, भ्रमर को चूमेगी
चुन-चुन   मीठे -मीठे गाने
कोयलिया    मारेगी   ताने


मधुगंध  बसाये   पोर-पोर
चंदा संग     खेलेगा चकोर
तुम उनके देस चले जाना
धर बाँह, यहाँ पर ले आना


मेरे बचपन के साथी !! तुमसे ,इतना ही मनुहार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?


जिस क्षण प्रियतम  मिल जायेंगे
मन के पलाश खिल जायेंगे
सरसों झूमेगी      अंग-अंग
चहुँ ओर बजेगी जल-तरंग


लिपि नयन-पटल पर उभरेगी
अंतस की भाषा    सँवरेगी
हम  आम्र-मंजरी   जायेंगे
सेमल  से  सेज   सजायेंगे


तुम आना मत अमराई में,मैं जब प्रियतम से प्यार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?


                                      ***********************










Saturday, March 12, 2011

"बस्तर-बाला"


    केश तुम्हारे घुंघराले  ,  ज्यों केशकाल की घाटी
   
देह  तुम्हारी  ऐसे महके ,ज्यों बस्तर  की माटी.

   
इन्द्रावती की कल-कल जैसी,चाल तुम्हारी रुमझुम
   
कोरंडम भी तरस रहा है ,बन जाने को कुमकुम.

   
गुस्सा इतना प्यारा कि  जब भी  भौंहें  तन जाये
   
चित्रकोट के जल  प्रपात पर,इन्द्र धनुष बन जाये.

   
तीरथगढ़  के  झरने जैसा  , काँधे पर है आँचल
   
वन में बहती पवन सरीखी,पग में रुनझुन पायल.

   
बारसूर  में  सात धार  का   जैसा  सुन्दर संगम
   
कंठ तुम्हारे समा गई है , सात सुरों  की सरगम.

   
गुफा कुटुम्बसर की गहरी,रहस्यमयी हो जैसे
   
श्वेत श्याम रतनार दृगों की थाह मैं पाऊँ कैसे ?

   
रूठे तो  भोपाल पट्टनम  -सी गरम बन जाती
   
प्यार करे; कांकेर की रातों -सी,शबनम बन जाती.

   
मुस्काए तो  महुवारी में  ,महुआ   झरता जाए
   
और हँसे खुलकर तो कोयल , अमराई में गाए.

   
नारायणपुर की मड़ई ,जगदलपुर की विजयादशमी
   
क्यों लगता है रूप तुम्हारा, जादूभरा,तिलस्मी ?

   
बस्तर का भोलापन प्रियतम ! मुखपर सदा तुम्हारे
   
इसी  सादगी पर मिट बैठे , अपना सब कुछ हारे.

   
चिकने-चिकने  गाल  तुम्हारे , ज्यों तेंदू के पत्ते
   
अधर रसीले लगते , जैसे मधु मक्खी के छत्ते.

   
प्रश्न  तुम्हारे  चार-चिरौंजी , उत्तर खट्टी इमली
   
कोसा  जैसी  जिज्ञासाएं , कोमल  और  रूपहली.

   
कभी सुबह के सल्फी-रस सी, मीठी - मीठी बातें
   
और  कभी  संझा की ताड़ी  , जैसी बहकी  बातें.

   
पेज  सरीखी शीतल , मीठी  प्रेम सुधा बरसाओ
   
राधा बनकर तुम कान्हा के,जीवन में जाओ.

   
बैलाडीला - बचेली  जैसा   ,ह्रदय तुम्हारा लोहा
   
मैं शीशे-सा नाजुक-भावुक,ज्यों तुलसी का दोहा.

   
धमन भट्टियों में बिरहा की,जिस दिन गल जाओगी
   
उस दिन  मेरे  ही  सांचे   में, प्रियतम  ढल जाओगी .

-
अरुण कुमार निगम